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આત્માન’દ પ્રકાશ
ती शिला पर अरणिक मुनि अपने शरीरका उत्सर्गं करदेता हैं । परमात्मा के ध्यान में तल्लीन होजाता है । उस अवस्था शरीर के साथ उनका कोई संबंध नहीं । सच्चे योगका साघना गरमी या ठंड़ी, सुख या दुःख, किसी का भान नहीं रहता । वह चित्तकी उत्कृष्ट एकाग्रता में तल्लीन हो जाता है । जड़-शरीर से उसका कोई संबन्ध नहीं रहता । अरणिक का आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है । इसका मतलब क्या है ? यही हैं कि मनुष्य जिस समय व्रतधारी होता है वह अगर अपने व्रतों में दूषण लगा लेता है तो भी, उसे पश्चात्ताप होता है । उसे फिर से ऊपर चढने का मौका अवश्य रहता 1 लेकिस जिसने व्रत लिया नहीं, प्रतिज्ञा की
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नहीं फिर भी उसका पालन करते हुए अगर कहीं दूषण लगा देता है, तो उसके लिये पश्चात्ताप का मौका नहीं होता । और वह हमेशा के लिए गिर जाता हैं ।
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कई लोग मेरे पास ऐसे आते हैं, जिन्होंने प्रतिज्ञापूर्वक व्रत लिये और भंग या दूषण होनेपर प्रायश्चित्त लेते है, परन्तु ऐसा एक भी आजतक नहीं आया जिसने बिना प्रतिज्ञा ! लिये व्रत पालन किया हो, और प्रायश्चित किया हो । इसलिए व्रतधारी होना बहुत जरुरी है ।