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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आत्मानंद प्रकाश ] सिद्धसेन और विक्रमादित्य मुनीश्री विद्याविजयजी म. सा. लेखक www.kobatirth.org - सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य राजा के पास जाते है, एक मंदिर के काम के लिये । जैनों और हिन्दुओं में उस वक्त राग-द्वेष की प्रवृत्ति चल रही थी एक दूसरे के धर्मकार्यों में रोड़े अटकाया करते थे । हिंदुओंने एक जैन मंदिर का शिखर बनने से रोक दिया था । सिद्धसेनने सोचा: मंदिर का शिखर बनना जरुरी है । परन्तु अब यह तबतक नहीं बन सकता, जबतक राजा की आज्ञा न मिले । सिद्धसेन, राजा विक्रमादित्य के पास गये । पुलिस उन्हे रोकती हैं। वे सोचते है- मै धर्म-गुरु की है ितसे आया हु । मुझे काम किसी तरह से निकालना है । राजा को प्रसन्न करना जरुरी है । देशकाल का विचार करके सिद्धसेन वहीं पर एक श्लोक बनाकर उस पुलिसवाले को देते है- राजा के पास पहुंचाने के लिये । सिद्धसेन जैसा धुरंधर कवि, संसार में कोई नहीं हुवा | वे मात्र ३२ अक्षर का एक श्लोक था: दिदृक्ष, मिक्ष रेकोsस्ति, वारितो द्वारि तिष्ठति । हस्तन्यस्तचतुः श्लोको | यद्वाऽऽगच्छतु गच्छतु ।। हे राजन! आपको देखने की इच्छा रखनेवाला एक भिक्षुक सिपाही के द्वारा रोका गया, तुम्हारे दरवाजे पर खडा है । जिसके Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ९ हाथ में चार श्लोक है । वह आपके पांस आवे या चला जाय ? | सिपाही जाकर विक्रमादित्य के हाथ में वह श्लोक देता है । राजा उस ३२ अक्षर के श्लोक को देखकर चकित हो जाता है । विचारता हैं मानो न मानौ, यह श्लोक बनानेवाला कोई जबर्दस्त विद्वान होना चाहिये । राजा वापिस जवाब देता है । दीयतां दश लक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोकी यद्वाऽऽगच्छतु ।। अपने नोकर को हुक्म देते हुवे वह लिखता है उन्हे १० लाख सोने की मोहरे देदो और १४ गांवका राज्य देदो । फिर जिसके हाथ में चार श्लोक हैं, उसको कहदो कि, अगर उन्हें आने की इच्छा हो तो मेरे पास आजाय, और जाने की इच्छा हो तो चला For Private And Personal Use Only जाय । वे थे सिद्धसेन दिवाकर । न उन्हे सोनामोहरें चाहिए थी, न शासन उन्हें तो लगन थी एकमात्र धर्म - सेवा की । सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य के पास चले गये । उस समय राजा पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठा था । सिद्धसेनने एक श्लोक और सुनाया, प्रसन्न होकर राजाने पूर्व दिशा का राज्य देदिया। दूसरा श्लोक सुनाया
SR No.532017
Book TitleAtmanand Prakash Pustak 091 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkant K Shah
PublisherJain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publication Year1993
Total Pages26
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Atmanand Prakash, & India
File Size3 MB
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