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શ્રીમદ્ વિજયાનંદસૂરિશ્વરની જુનાગઢમાં ઉજવાયેલી જયંતી.
૨૯
णमस्तु युगान्तरे वा न्यायातपथः प्रविचलन्ति पथं न धीरा" चाहे कितनाहि कष्ट सामने क्यो न आवे. जैनदर्शन स्याद्वाद शैलीसे विपरीत कथन न करूंगा ऐसे विपरीत विचार, लोगोमें सत्य उपदेश देने लगे उस समय हुँढियोने इन महात्माको आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, स्थान किसीने नही देना, और न इनके पास किसीने जाना एसी उद्घोषणा स्थान स्थानमें करदी थी. परंतु इससे क्या होना था. आत्मार्थी, सत्यग्राही, सत्यवक्ता, लोकोंको सच्चे रास्तेको बतानेवाले महात्माके प्रति इस प्रकारका आचरण, अफसोस! यही तो दुनियामें मोटी भूल पडी हुइ है. कि अपने मतलबके लिए सत्यका खुन कर देना! अस्तु
एसे समयमें भी आप उपकार करनेसे नही हटें, आप धर्मशालामें उतरतें जैनेतर ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्योके घरोसे योग्य भिक्षा मांगते और सत्य उपदेश के चक्रको चलाते हुए आपको बडे बडे कष्टोका सामना करना पड़ा था. एसे कष्टोंको जिन्होने सहन किया, इसीसे आज पंजाबमें १५००० मनुष्य शुद्ध श्रद्धाको माननेवाले अर्थात मूर्ति माननेवाले ५० सो जिनेश्वर भगवानके मन्दिर है; जिसकी ध्वजा आकाससे बातें करती नजर आती है।
सज्जनो; महात्माके जीवनका एक एक अंश भी जगदासी जीवोके उद्धारमे कारनभूत है तो उनके संपूर्ण जीवनका कहना ही क्या, किन्तु मैं पहले ही कह आया हु किन मुझमे इतनी ताकत है और न इतना टाइम है, इसलिए जो कुछ कहा गया उसमेसे यथायोग्य ग्रहन करना चाहिए. केवल पूर्वजोके गुन गानेहीमे आप अपने कर्तव्यकी इतिश्री न समझिए, उन्हीके सदृश अद्भुत शक्ति आविष्कार करने के लिए प्रयत्न करिए और उनके सच्चे अनुगामी वनिए.
दयादयालो दिलमे वढाओ आ स्वर्गसे सौख्य भरो उठाओ हो एकता स्नेहसुधा पिलाओ याश्चायही वल्लभता सिखाओ । ५। गुरु आतम आतममें रटना जगवल्लभ वल्लभको रटना जिससे मिटता भवमें अटना उससे चहिए न तुम्हे हटना ।६।
આટલું કહી પિતે સ્થાન લીધું. ત્યારબાદ મુનિશ્રી વિબુધવિજયજીએ ઉભા થઈ આજ્ઞાનુસાર પોતાનું ભાષણ શરૂ કરતાં જણાવ્યું કે
___“मुनिश्री विबुधविजयजीनुं भाषण." श्रीशाली ग्रहस्थो।
परमपूज्य महोदय सभापतिजी! मुनिवरो! महानुभावो! आज आप
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