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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૬૨ આત્માનંદ પ્રકાશ, श्री संघ तरफसे इस माहात्माको कुछ निवेदन करना चाहता हुं सो माहात्मा ध्यान देकर श्रवण करे। माहात्मन् श्राको पन्यास संपतविजयगणिने योगोदवहनको शुज क्रिया करवाके उच्च पदपर पहोचाय दिये है. इस पदको पाकर संतोष मानकर बेठ रहना उचित न समजे इस पदको हांसत करनेवालेके शिर अनेक सुन फरजां बजानेकी हे जैसे आस्मानमें चढे हुवे सूर्य चंजको राहुकी आफत हे तैसे उच्चपद आरुढको अनेक आफते दूर करके तथा अपनी पदव! दीपाके आत्मोन्नति करनेको आवश्यकता है. माहाशय प्रथम तो कुसंप नाबुद करके सर्व समुदायके साथ संप रखनेकी ही जरूरत हे देखीए एक कवीने कहाली हे) संप करे किम्मत वधे, घटे करे मन रीस, थाय अंक मुख फेरवे, सपना उत्रीश ॥१॥ माहात्मन् जैसे त्रेसको अंकका मुख फीराय देनेसे उनीस बन जाता है तैसेही रोस करके जो कुसंपसें मुख फोराय लेता है उसकी किम्मत याने लायकी घट जाती है और संप रखनेसे किम्मत वक्षती हे याने जसकी बमी कदर होती है. संप एसा स्तुतिपात्र है की उसका वर्णन करने. को मेरे पास पूरता शर नंमोन नही हे संप बिना हरेक तरेंकी नन्नतीकी आशा वंध्या पुत्र जैसी हे। (कोसी संघ के हीमायतीने कहा नी हे की) बम निष्फल हिमत विना । वंश संप विन व्यर्थ । वित्त व्यर्थ विद्या विना । अगुणे श्रम अनर्थ ॥१॥ माहानुनाव जैसे हिम्मत विना बन्न निरर्थक हे, विद्या विना द्रव्य व्यर्थ हे, निर्गुणको मोला हुवा श्लम अनर्थकारी हे। तैसेही संप बिना वंशकी पायमाली होती हे । इसलिये संप हे वांही सुख ओर श्रेय हे । संप विना आबादी । नन्नती ओर सद्गुण प्राप्तिकी आशा आकाशकुसुम जैसी व्यर्थ समजना इसलिये कोसीके साथ विरोध न रखना. देखीए शास्त्रकार माहात्माओका जी ए ही फरमान है। बहुनिन विरोधव्यं पुर्जयोहि महाजनः। स्फुरन्तमपिनागें । नयंति पिपीलिकाः ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.531138
Book TitleAtmanand Prakash Pustak 012 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Atmanand Sabha Bhavnagar
PublisherJain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publication Year1914
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Atmanand Prakash, & India
File Size3 MB
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