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Celebrating Jain Center of Houston Pratishtha Mahotsav 1995
हो गया। इस पार आत्मा और उस पार परमात्मा। दोनों के बीच का सेतु हो गया अन्तर् आत्मा। 'जो मनुष्य परमात्मा होना चाहता है उसे परमात्मा को जानना देखना होता है जो अर्हत् को जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है । जो अर्हत् को नहीं जानता वह अपनी आत्मा को भी नहीं जानता।' आचार्य कुन्दकुन्द का साधना-सूत्र परमात्मा होने का मूल्यवान् सूत्र है । साधारणतया कहा जाता है कि पहले आत्मा को जानो, फिर परमात्मा को जानो। वास्तविकता यह है कि पहले परमात्मा को जानो, फिर आत्मा को जानो। परमात्मा को जाने बिना आत्मा को नहीं जाना जा सकता। परमात्मा की उपासना किए बिना आत्मा परमात्मा नहीं हो सकती। परमात्मा की उपासना में लम्बा समय लगता है, परमात्मा होने में लम्बा समय नहीं लगता। जो परमात्मा को नहीं देखता, वह कभी परमात्मा नहीं बन सकता
आत्मा के विकास की एक सीमा है । चेतना के सूर्य की अनन्त रश्मियों में से कुछेक रश्मियां उसमें प्रकट होती हैं। शेष सारी परदे के पीछे रहती हैं । दूसरी सीमा यह है कि शक्ति के अनन्त स्रोतों में से कुछेक स्रोत उसमें प्रवाहित होते हैं। तीसरी सीमा यह है कि उसका आनन्द विकृत रहता है । वह आनन्द को खोजती है-वस्तुओं में, शब्दों में और वातावरण में भीतर में आनन्द का अक्षय कोष होता है। उसकी ओर भी ध्यान नहीं जाता। क्या खाना कोई आनन्द है। आपके शरीर पर कोई फोड़ा हो रहा है। उस पर मरहमपट्टी की जा रही है। क्या फोड़े पर मरहमपट्टी करना कोई आनन्द है। फोड़े पर मरहमपट्टी करने में थोड़े आनन्द का अनुभव होता है। कुछ आराम मिलता है । ये पेट के फोड़े कुलबुलाने लगते हैं, यह जठराग्नि कष्ट देने लगती है, तब आदमी थोड़ा-सा भीतर डाल देता है। वे शान्त हो जाते हैं। आदमी सोचता है, बहुत आनन्द मिला। यह आनन्द है या फोड़े का इलाज ? शरीर को खुजलाने में आनन्द का अनुभव होता है। भला शरीर को खुजलाना भी कोई आनन्द है ? हमारी सीमा बन गई । जिसमें आनन्द नहीं है उसमें आनन्द खोजते हैं । जिसमें आनन्द नहीं है उससे आनन्द पाने का प्रयत्न करते हैं ।
आत्मा की तीन सीमाएं हैं० ज्ञान का आवरण । ० शक्ति का स्खलन । ० आनन्द की विकृति ।
जैसे-जैसे हम परमात्मा की ओर बढ़ते हैं, उस दिशा में हमारा प्रयाण होता है, वैसे-वैसे ये सीमाएं टूटती चली जाती हैं । आवरण समाप्त होता
"Happiness will never come to those who fail to appreciate what they already have"
(Gautam Buddha)
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