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जैन धर्न का संक्षिप्त परिचय
संघ प्रवर्तिनी साध्वी श्री मंजुला श्री जी जैन धर्म विश्व के प्रमुख एवं प्रचीनत्तम धर्मों में से एक है। यह जितना पुराना है, उतना ही तरोताजा, वैज्ञानिक, व्यवहार्य और आडम्बरों से मुक्त भी है।
सामान्यतः पुरानी वस्तु जीर्ण-शीर्ण, रूढिग्रस्त, अव्यावहारिक और प्रदर्शन प्रधान बन जाती है। पर जैन धर्म इसका अपवाद है। इसमें जितनी तेजस्विता और मौलकिता है। वह इसकी अपनी विशेषता है।
जैन धर्म का शाब्दिक अर्थ है-जिन यानी 'विजेताओं के द्वारा निरूपति किया गया धर्म। यह धर्म राग-द्वेष को जीतने वाले वीतराग जिन भगवान के द्वारा निर्दिष्ट धर्म है और कषाय विजय के इच्छुक व्यक्तियों के लिए है। जिनो देवता यस्य सः जैन:-जिन भगवान जिनके आराध्य हैं वे जैन कहलाते हैं। जैन धर्म वह मार्ग है जिसका अनुसरण कर व्यक्ति अन्ततः कर्म बंधन से मुक्त होकर मोक्ष गामी बन जाता है।
इस काल-चक्र में जैन धर्म का निरूपण करने वाले ऋषभादि चौबीस तीर्थकर हो गए हैं, पर वर्तमान में जो जैन धर्म का स्वरूप उपलब्ध है, उसके निर्देशक और उपदेशक भगवान महावीर थे। श्रमण भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थकर थे। आप एक राजघराने में जन्मे थे वैभवपूर्ण वातावरण में पल-पुसकर भी विलासिता में नहीं फंसे। त्याग के पथ का अनुसरण किया और सुख शांति चाहने वाले प्राणियों को भी त्याग का पथ बतलाया। भगवान् महावीर ने तीन मौलिक सिद्धान्त दिए-अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद । अहिंसा और अपरिग्रह की चर्चा अन्यत्र भी मिलती है। किन्तु अनेकान्तवाद भगवान महावीर का सर्वथा नया दर्शन हैं।
जहां कोई ज्ञान-योग से मुक्ति की स्थापना करता था, कोई भक्ति योग को मुक्ति का माध्यम बताता था, कोई कर्म-योग में विश्वास करता था, वहां भनवान ने सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक आचरण की समन्विति से मोक्ष की प्राप्ति बताई। सम्यग दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः"
जहाँ कुछ दार्शनिक पदार्थो को कूटस्थ नित्य मानते थे, कुछ क्षण क्षयी के सिद्धान्त को स्वीकार करते थे, कुछ लोग अमुक अमुक पदार्थों को नित्य और अमुक को अनित्य मानते थे, वहां भगवान महावीर ने उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक पदार्थ की स्थापना कर नित्यानित्य के सिद्धान्त की घोषणा की।
जैन दर्शन में आत्मा को ही परम विकसित अवस्था में परमात्मा के रूप में स्वीकार किया गया है। जहाँ अन्य दर्शनों में भक्त, भक्त ही रहता है वहां भगवान महावीर ने जैन दर्शन में भक्त को भी भगवान बनने का अवकाश दिया है। सुख दुःख, जन्म-मरण, संसार-मुक्ति-सब अपने कृत कर्मों का भोग है। दूसरा कोई किसी का भला-बुरा करने वाला नहीं है। बन्ध और बन्ध के हेतु, मोक्ष और मोक्ष के हेतु -इन चारों का सम्यक बोध जिस व्यक्ति को हो जाता है, वह शीघ्र ही संसार-भ्रमण से मुक्त हो जाता है। आत्मा को संसार में भटकाने वाले रागद्वेष या कषाय है। कषाय को क्षीण करने पर व्यक्ति की मुक्ति स्वतः हो जाती है।
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