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साधना से साध्य
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- आचार्य विमल सागर अनादि कालीन संसार दु:खो से संतप्त जीव सुख चारित्र की आराधना की और शिष्यों के हितार्थ चारित्र चाहता है पर सुख की प्राप्ति के उपायों को नहीं करता धारण करने का उपदेश दिया । द्वादशांग वाणी में हुआ पांच पापों के प्रपंच में फंसा दु:ख श्रृंखला को सर्वप्रथम 'आचारंग काही कथन किया । पंचम यथाख्यात मजबूत करता है।
चारित्र की प्राप्ति के लिए उस पंच मेदोंयुक्त चारित्र को में आचार्य श्री गुणभद्र स्वामी आत्मानुशासन में पुन: पुन: प्रणाम करता हूँ। लिखते है -
तीर्थंकरो को भी बिना चारित्र धारण किये अनन्त 'पापत् दु:खं धर्मात् सुख' – पाप से दु:ख व धर्म सुख प्राप्त नहीं हुआ तो साधारण जीवो की क्या कथा? से सुख प्राप्त होता है। प्रश्न उठता कि धर्म क्या है? तो ता ह । प्रश्न उठता कि धम क्या है ? तो
कुन्द कुन्द स्वामी ने अष्ट पादुड़ में विवेचन प्रवचनसार में कुन्द कुन्द स्वामी लिखते है, 'चारित्तं खलु किया है - धम्मो' - चारित्र ही निश्चय से धर्म है। आचार्य इसी लिये णवि सिन्क्षड़ वत्थधरो, जिणसासणे जई वि होई तित्थयरो। भव्यात्माओं को सम्बोधित करते हुए णम्मो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गय सव्वो ।। लिखते है 'महानुभावो, सच्चे सुख की प्राप्ति करना है तो जिन शासन में वस्त्रधारी कभी सिद्धि को प्राप्त चारित्र धारण करना परम आवश्यक है ' । कहा हे - नहीं कर सकता, चाहे वह तीर्थंकर भी क्यों न हो । नग्न
'अनन्त सुख सम्पन्न चेनात्माय क्षणादपि । दिगम्बर यथाजात रूप ही मोक्ष मार्ग है शेष सभी उन्मार्ग नमस्तस्मै पवित्राय चारित्राय पुन: पुन: ।।
उस चारित्र को बारम्बार नमस्कार है जिसके आचार्य श्री समन्त भद्र स्वामी से शिष्य ने पूछा - धारण करने से आत्मा क्षण मात्र में अन्त सुख का स्वामी प्रभो ! चारित्र धारण करने की आवश्यकता क्यों? आचार्य बन जाता है।
श्री ने समाधान किया - महानुभावो ! दर्शन की पूर्ति क्षायिक सम्यगदृष्टि मोहतिमराणहरणे, दर्शन लाभादवाप्त संज्ञान: । के चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है, पर जीव सुख को प्राप्त रागद्वेष निवृत्यै, चरणं प्रपद्यते साधु ।। नहीं करता । ज्ञान की पूर्णता केवलज्ञान होते ही तेरहवें
-रत्नकरण्ड ज्रावकाचार गुणस्थान में अहंदावस्था में हो जाती है; फ़िर भी ८ वर्ष सम्यक्-दर्शन व ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी कम १ कोटि पूर्व तक जीव संसार में बना रहता है । पर राग द्वेष रूप अशुभ परिणामों की निवृति चारित्र धारण चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में होते किये बिना नहीं हो सकती । अत: मोह रूप अंधकार को ही आत्मा शाश्वत सुख को प्राप्त कर सिद्धावस्था को प्राप्त नाश कर राग द्वेष की निवृति चारित्र धारण किये बिना नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि चारित्र सुखप्राप्ति का हो सकती । अत: मोह रूपी अंधकार को नाथ कर राग साधकतम कारण है।
द्वेष की निवृति के लिये साधु जन चरित्र की शरण को चारित्रं सर्व जिनैश्चरितं प्रोक्तं च सर्व शिव्येभ्यः ।। प्राप्त होते है । इस लिये तीनों की एकता ही मोक्ष का प्रभामि पंच मेद, पंचम चारित्र लाभाय ।। मार्ग है।
-वीरभक्ति पूर्व में जितने तीर्थंकर हो गये सभी ने स्वयं
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