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जं इच्छसि अप्पणतो, जनाच्छसि अप्पणतो, तं इच्छ परस्स वि।
एत्तियगं जिणसासणयम्॥ जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरों के लिए भी चाहना और जो अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना। बस इतना ही तीर्थकर का उपदेश है।
मनुष्य यदि यथार्थ में मनुष्य है तो किसी को कष्ट में देखकर उसका हृदय अनुकम्पा से कांप उठता है। उसके मन-प्राण आन्दोलित हो उठते हैं। वह कष्ट-निवारण के लिए तत्काल सारे करणीय उपाय करता है। परदःखकातर होकर प्राणिमात्र की सेवा में संलग्न हो जाना ही चेतना का विकास है, उारोहण है। जहाँ चेतना को अजु भावों की विशुद्धता में सहजानन्द को विलक्षण अनुभूतियों का स्पर्श होता है वह अन्य भावों में कहाँ हो पाता है? __ जीवन की अंतरंग और बाह्य उभयतः सर्वमंगल विकास-यात्रा में भगवान महावीर ने अनुकम्पा के विधिपक्ष सेवा अर्थात् वैय्यावृत्य को प्रमुखता दी है। सेवा से चिन्तन में एवं भावों में "सर्वभूतहितं की व्यापकता आती है। सेवाभावी मन विनम्र, उदार और परस्परोपग्रही होता है।
जीवन, धर्म और दर्शन के शब्दसंसार में "सेवा" - एक ऐसा शब्द है, जो उदात्त भावों का ज्ञापक है मानवीय चेतना के क्षीर समुद्र के मन्थन से निकला अमृत-कलश है। प्राणिमात्र से संबन्धित अपनत्व का सारगर्भित सूत्र है। मनुष्य को देवाधिदेव के पद पर अभिसिक्त करनेवाला रचनात्मक धर्म का पावन रूप है।
सेवाधर्म मनुष्य के वजमय अहं को गलाता है, नीच स्वार्थों के जंगलों को मिटाता है, प्रमाद में पड़े सुविधाभोगी सुषुप्त मन को जगाता है। भगवान महावीर और गणधर गौतम का एक बहुत ही सुन्दर परिसंवाद है, जो सेवा की महत्ता को उपाटित करता है।
इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रथम गणधर हैं। गणधर का अर्थ है - संघ को धारण करनेवाला। अर्थात् भगवान महावीर के संघ का पूरा दायित्व गणधर गौतम वहन करते हैं। महान् श्रुतधर हैं।