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जीवाजीव जाण्या सही सही जाणी छह काय। बसतै घर रा पावणा, मीठा भोजन खाय।।
इन दोहों में सुन्दर सारांश भर दिया गया है। जीव क्या? अजीव क्या? इस भेद रेखा को जिसने नहीं जाना
हैं और छह काय के जीवों को नहीं जाना है, वह सूने घर के मेहमान के समान होता है जिस प्रकार सूने घर में कोई मेहमान बनकर आए तो वहां कौन खातिरदारी करेगा? जीव अजीव आदि को और छह काय के जीवों को नहीं जानने वाला मृत्यु के बाद मानो सूने घर का मेहमान बनने वाला है जिसने जीव अजीव आदि को जाना है, षट्जीवनिकाय को जाना है और उनके प्रति अहिंसा की साधना की है तो ये बसते घर के मेहमान के समान है बसते हुए घर में कोई जाए और सामने वाला व्यक्ति भी सहृदय हो तो वह आतिथ्य करता है, भोजन कराता है और उसका सम्मान करता है वह अगली गति में भी ऐसे स्थान पर जाएगा, जहां उसे आत्मशांति मिल सकेंगी और अनुकूलताएं भी प्राप्त हो सकेगी।
कर्म के सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि हम जीवन में अहिंसा का प्रयोग करें और हमारा लक्ष्य आत्मशुद्धि रहें। बादशाह अकबर के नव रत्नों में एक था तानसेन वह बहुत अच्छा गाता था। बादशाह ने एक दिन कहा— तानसेन ! तुम्हारा गुरु कौन हैं? जिसने तुमको गाना सिखाया है। मैं उसको सुनना चाहता हूं। तानसेन जहांपनाह! मेरे गुरु हरिदास हैं। परन्तु वे न तो आपके बुलाने से यहां आयेंगें और न किसी के कहने से गाएंगें।
अकबर- तानसेन! कुछ भी हो. मैं तुम्हारे गुरु के गान को सुनना चाहता हूं। तानसेन बादशाह को साथ लेकर हरिदास की झोपड़ी के पास पहुंचा और बादशाह से कहा आप बाहर ही रहें मैं अन्दर जा रहा
हूं।
तानसेन भीतर गया और गलत गाना शुरू कर दिया शिष्य गलती करे तो गुरु का कर्तव्य है कि शिष्य को गलती के प्रति जागरूक करना और उसकी गलती को सुधारना हरिदास ने देखा कि तानसेन गलत गा रहा है।
हरिदास तानसेन! ऐसे नहीं, इस गीत को ऐसे गाओ।
हरिदास ने गाकर उसको ठीक बताना शुरू किया। बादशाह ने बाहर से ही हरिदास का गाना सुन लिया। उसके मन की मुराद पूरी हो गई।
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बादशाह तानसेन ! तुम्हारे गाने में वह मीठास नहीं है जो तुम्हारे गुरु के गाने में है तुम्हारे गुरु के गान को सुनने के बाद तुम्हारा गाना मुझे फीका लगने लग गया।
तानसेन जहांपनाह! फीका तो लगेगा ही मैं तो गाता हूं आपको राजी करने के लिए और मेरे गुरु गाते हैं. परमात्मा को राजी करने के लिए।
आदमी यह चिन्तन करें कि मैं केवल मन की आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करता हूं या परम की प्राप्ति के लिए भी कुछ कर रहा हूँ? अहिंसा की साधना परम के लिए हो, मोक्ष के लिए हो, आत्मकल्याण के लिए हो, फिर देखिए कि किस प्रकार अशुभ कर्म क्षीण होने लगते हैं, कमजोर पड़ते हैं, निर्जरा होती है और साथ में शुभ कर्मों का बंध भी होता है। यद्यपि पुण्य कर्मों का बन्ध साधक के लिए वांछनीय नहीं है। उसे वांछा तो निर्जरा की करनी चाहिए मोक्ष की करनी चाहिए। निर्जरा के साथ पुण्य कर्मों का बन्ध तो अपने
आप ही हो जाएगा। हमारी अहिंसा की साधना रागमुक्तता के साथ हो तो वह अपने आपमें और विशिष्ट बन जाती है।
196 JAINA Convention 2015
अनेक धर्म ग्रन्थ है उन सबमें अहिंसा और मैत्री की बातें किसी न किसी रूप में मिल ही जाएगी। किसी कवि ने सुन्दर कहा -
वेद पुराण कुरान के सारे अक्षर धोय प्रेम-प्रेम लिख डारिए, कुछ नुकसान न होय ।।
सभी धर्म ग्रन्थों का सार है - प्रेम, अहिंसा मले वेद हैं, पुराण हैं, कुरान हैं, जैन आगम हैं, त्रिपिटक आदि हैं। कोई उनके अक्षरों को साफ करके सब जगह प्रेम, प्रेम, प्रेम लिख दिया जाए तो धर्म ग्रन्थों का एक सार बना रह जाएगा। धर्म का एक सार है प्रेम उसे मैत्री भी कहा जा सकता है और अहिंसा भी कहा जा सकता है। जैन वाड्.मय में तो बहुत ही सूक्ष्मता से अहिंसा का विवेचन किया गया है। दसवेआलियं में कहा गया -
अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो
सभी प्राणियों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार करना अहिंसा हैं। जैन मुनि के लिए ईर्ष्या समिति का विधान अहिंसा की दृष्टि से ही है। मुनि चले तो नीचें देखकर चले रात्रि में चले तो रजोहरण से प्रमार्जन करके चले ताकि कोई जीव उसके पैर के नीचे न आ जाए उसकी हिंसा न हो जाए। मुनि को हिंसा का पाप न लग जाए। एक साधु मुखयस्त्रिका का प्रयोग करता है ताकि बोलने से वायुकाय के जीवों की हिंसा न हो जाए। अहिंसा का कितना सूक्ष्म विधान है? साधु के लिए भोजन बनाना भी हिंसा माना गया है इसलिए साधु आधाकर्मी आहार का वर्जन करें और घर-घर जाकर गृहस्थ के लिए बने हुए भोजन में से थोड़ा भोजन ले मुझे नहीं पता कि जैन साधु के अतिरिक्त और कौनसे सन्यासियों के ऐसा नियम होगा कि उनके लिए बनाया हुआ भोजन नहीं लेना। यह एक शोध का विषय है पर जैनशासन में यह विधान रहा है एक जैन मुनि सामान्यतया वाहन का प्रयोग नहीं करता क्योंकि वाहन के नीचे आकर भी कितने जीव मर जाते है मात्र छोटे जीव ही नहीं, सांप, बिच्छू, बिल्ली, कुत्ते आदि बड़े जीव भी मर जाते है और कई बार तो मनुष्य भी मर जाते है, यानि वाहन से कितनी हिंसा हो सकती है? इस प्रकार वाहन का प्रयोग न करने के पीछे भी मुख्यतया अहिंसा की दृष्टि ही रही है।
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जैनधर्म में केवल शारीरिक अहिंसा के बारे में ही नहीं, मानसिक और वाचिक अहिंसा के बारे में भी बहुत सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया है जैन आगमों में कहा गया कि साधु कटु वचन बोल दे तो वह प्रायश्चित का भागी होता है। इसलिए मुनि कटु वचन न बोले, मर्मभेदी भाषा न बोले। यह मिष्ट भाषा का प्रयोग करें। यह वाचिक अहिंसा है। साधु मन में भी किसी का अनिष्ट चिंतन न करें। सबके प्रति मैत्री का भाव रखें, अहिंसा का भाव रखें, यह मानसिक अहिंसा है।
हिंसा के तीन प्रकार है - आरम्भजा हिंसा, प्रतिरोधजा हिंसा और संकल्पजा हिंसा ।
आरम्भजा हिंसा
जीवन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए खान-पान आदि के लिए आदमी खेती करता है उसमें जीवों की हिंसा होती हैं, परन्तु यह एक अनिवार्य हिंसा है आदमी जीवों को मारने के लिए खेती 1 नहीं करता। वह अपने भोजन की दृष्टि से अन्न प्राप्त करने के लिए करता है। हालांकि यहां हिंसा तो हो रही है। किन्तु हिंसा का लक्ष्य नहीं है। यह अनिवार्यतावश हिंसा की जा रही है।
प्रतिरोधजा हिंसा आदमी अपनी रक्षा के लिए कुछ प्रयास करता है। देश की रक्षा के लिए भी कुछ प्रयास करता है। जब शत्रु सेना आक्रमण कर देती है या आक्रमण करने वाली होती है, तब राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सैनिक तैयार हो जाते हैं, सन्नद्ध हो जाते हैं। देश की रक्षा के लिए युद्ध भी करना पड़ता है। युद्ध में हिंसा भी होती है। यह हिंसा प्रतिरक्षात्मक अथवा प्रतिरोधजा हिंसा होती है और यह आवश्यक भी है।
Jainism: World of Non-Violence 197