________________
JAINA CONVENTION 2011
"Live and Help Live"
भारतवर्ष में ऋषियों की ये ऋचाएं सदा गूंजती अस्तित्व, सेवा, सहयोग और संवेदनशीलता। ये ही रही हैं।
वे तत्व हैं जिनके आधार पर जगत का अस्तित्व, अस्मिता और विकास की पताकाएं फहराती हैं।
-
सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सब का कल्याण हो भला हो, जगत में कोई भी प्राणी दुःखी न रहे। प्रार्थना के इन स्वरों में ऐसे सकारात्मक स्पन्दन भरे हुए हैं, जो चारों ओर सुख-शांति और आनंद का एक अदभूत उर्जा वलय निर्मित कर देते हैं। यह वलय उसके अस्तित्व का आधार बन जाता है, भगवान महावीर का संदेश
है।
* किसी भी प्राणी के अस्तित्व को मत करो |
किसी को कष्ट मत दो |
* किसी का वध मत करो ।
* किसी पर हकुमत मत चलाओ । * किसी के अधिकारों का हनन मत करो। * किसी का शोषण व उत्पीडन मत करो। ऐसा करना हिंसा है। यह अपनी क्षति है, अपना अहित है। इससे समाज व्यवस्था प्रभावित होती है। विकास बाधित होता है। प्राकृतिक संतुलन बिगडता है। मनुष्य जाति और संपूर्ण जीव जगत के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगते हैं।
समाज व्यवस्था के सूत्र :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका जीवनमरण, उन्नति -अवनति, सुख-दुःख एक दूसरे से जुडे हुए हैं। सब सापेक्ष हैं। यहाँ निरपेक्ष रहकर कोई भी अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता। सापेक्ष जीवन पद्धति के आयाम हैसमता, समानता, सामंजस्य, शांतिपूर्ण सह
क्रम विकासवाद के प्रवक्ता वैज्ञानिक डार्विन ने कहा- अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखना है तो शक्तिशाली बनो, स्ट्रगल करो और आगे बढो। इसके विपरीत जैन आचार्यों ने कहा- संघर्ष का नहीं सहयोग का रास्ता अपनाओ। सृष्टि के अस्तित्व, विकास और मानवता की सुरक्षा का एक शक्तिशाली मंत्र है परस्परोपग्रहो जीवानाम् । यह विश्व व्यवस्था का प्रभावी मंत्र है। मनुष्य जाति का अस्तित्व इसी विराट चिंतन पर अवस्थित है। सामुदायिक जीवन का प्राण तत्व है सेवा और सहयोग। इसी में विकास की संभावनाओं को तलाशा जा सकता है।
उन्नत और उद्देश्यपूर्ण जीवन :
जीवन का जहाँ तक सवाल है, जैन द्रष्टि स्पष्ट है, किसी भी प्राणी की हत्या मत करो। क्यों कि जैसे तुम्हें जीवन प्रिय है वैसे ही प्रत्येक प्राणी को जीवन प्रिय है। इसलिए किसी की जीवनधारा को खंडित मत करो। इसका दूसरा पहलू है, जीवन में सहभागी बनना - यह भी चिन्तन सापेक्ष है। जीवन की मूल्यवत्ता उद्देश्य से निर्धारित होती है। जीवन दो प्रकार का होता है- उद्देश्यपूर्ण और निरुद्देश्य । उद्देश्य भी दो प्रकार का होता है - पवित्र और अपवित्र। एक विकास लक्षी होता और दूसरा विनाशकारी ।
सकारात्मक जीवन द्रष्टि सृजनात्मक उर्जा उत्पन्न करती है। इससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का नवनिर्माण होता है। इसी से सुखी परिवार, स्वस्थ समाज और समृद्ध राष्ट्र की नींव लगती है ।
138