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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 सराग एवं वीतराग सम्यग्दर्शन : एक चिन्तन -डॉ. आलोक कुमार जैन भारत देश सदैव ही विश्वगुरु के रूप में सर्वमान्य है। इसमें अनेकों धर्म एवं सम्प्रदाय विद्यमान हैं। उन सबके सिद्धान्त, आचार-विचार एवं व्यवहार स्वतन्त्र रूप से भिन्न प्रतीत होते हुए भी देश में एकता अनेकों शताब्दियों से विद्यमान है। उनमें जैनदर्शन के अलावा सभी दर्शन आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। जैनदर्शनानुसार सभी भव्य जीव रत्नत्रय को आधार बनाकर सिद्धत्व की प्राप्ति कर सकते हैं। उसकी प्राप्ति में रत्नत्रय की प्रमुखता है। उसमें भी सम्यग्दर्शन को आचार्यों ने आधार स्वरूप प्रथम सीढी स्वीकार किया है। इसको वृक्ष के बीज स्वरूप भी स्वीकार किया है। वह सम्यग्दर्शन देव-शास्त्र-गुरु पर सच्ची श्रद्धा अथवा तीर्थङ्करों एवं आचार्यों ने जिन तत्त्वों का स्वरूप प्ररूपित किया है उन तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान को समझने वाले सम्यग्दष्टि जीव इस लोक में विरले ही होते हैं। वह सम्यग्दर्शन दो शब्दों के मेल से बना है सम्यक् और दर्शन। सम्यक शब्द का अर्थ समीचीन, सच्चा, वास्तविक है। दर्शन, रुचि, प्रत्यय श्रद्धा, स्पर्शन ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। आप्त या आत्मा में आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। श्रद्धा को ही विषय करके दर्शन का अर्थ बताते हुए प्रवचनसार के टीकाकार आचार्य लिखते हैं कि तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणरूप दर्शन से शुद्ध हुआ दर्शनशुद्ध कहलाता है। दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिये। सम्यग्दर्शन के स्वरूप को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने जीवादि नव पदार्थों को ही सम्यक्त्व कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी इसके स्वरूप को अन्य प्रकार से परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि हिंसा रहिए धम्मे, अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।'
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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