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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जीव के इन दोनों ही पुरुषार्थों की अधिगति कराता है। अतः इस दृष्टि से जीव का वह पुरुषार्थ ही कर्मवाद का मूल आधार तत्त्व माना जा सकता है जिससे जीव में मोहरागादि परिणाम पैदा होते हैं अथवा मिटते है। इस प्रकार जैनकर्मवाद मुख्यता से जीवाधारित ही ज्ञात होता है तथापि जीव और पुद्गलों के परिणमन में परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धों की उपेक्षा जैनकर्मसिद्धान्त में अभ्युपगत नहीं है। वस्तु स्वातन्त्र्य का हनन भी जैनकर्मसिद्धान्त से पुरस्कृत नहीं होता है अपितु वह अपनी विशिष्ट प्ररूपणा से वस्तु स्वातन्त्र्य को ही फलित करता है। 19. जैन परम्परा में वाड्.मय स्वरूप कर्मसिद्धान्त का मूल आधार जितेन्द्रिय जिन अर्थात् पूर्ण वीतरागी एवं सर्वज्ञ स्वरूप अर्हन् परमेष्ठी की देशना को माना गया है। तदनुगामी वाड्.मय जो आज उपलब्ध है उसे दिगम्बर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जानकर कर्मसिद्धान्त के रहस्य को समझा जा सकता है। पेज्जदोसपहुदी (कषायपाहुड), छक्खंडागमो (षट्खण्डागम) एवं तदुपजीवी धवला, महाधवला, गोम्मटसारजीवकाण्ड-कर्मकाण्ड प्रभृति दिगम्बर ग्रंथों को तथा बन्धशतक कम्पयडी (कर्मप्रकृति), सप्ततिका, पंचसंग्रह आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों को जैनकर्मवाद को आधार वाड्.मय की दृष्टि से माना जा सकता है। - जैनदर्शन विभाग, रा.संस्कृत संस्थान, जयपुर परिसर, गोपालपुरा बाईपास, जयपुर (राजस्थान)
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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