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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
61 पुरुषार्थ पर निर्भर है। इसमें कर्मों के उदयादि की भूमिका भी निमित्तपने में अपरिहार्य होती है। यहाँ कर्म और जीव के परिणामों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध ही ज्ञात होता है, कर्तृकर्मसम्बन्ध नहीं। 12. आत्मा (जीव) और कर्मप्रकृतियों में जब तक विवेक ख्याति नहीं होती है तब तक जीव का संसार बना रहता है तथा जब वह उन दोनों को उनके अपने-अपने स्वरूप से जानकर विवेक सम्पन्न होता है तो यथोचित पुरुषार्थ से संसार से मुक्त होता जाता है। इस प्रकार जैनकर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में फलित होता है कि जीव दोनों ही परिस्थितियों के लिये स्वयं ही स्वतंत्र है। 13. जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार विवेकख्याति किं वा भेदविज्ञान से जीव की बुद्धि जब स्वतत्त्व निष्ठ होती है अर्थात् स्व शुद्धात्मा की शरण को ले लेती है तो जीव से बंधे कर्मों का पार्थक्य होने लगता है परिणामतः जीव को कर्मों से मुक्ति मिलने पर सुख भी मिल जाता है। 14. कर्मवाद अशुभ से बचकर शुभ में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है परन्तु उसका लक्ष्य पुनः अशुभ की ओर उन्मुख होने की छूट देना कतई नहीं है। जैनकर्मसिद्धान्त के उपदेश से यह ज्ञात हो जाता है कि जीव कर्मबन्धन में बने रहने के लिये नहीं अपितु उससे मुक्त होने का ही पुरुषार्थ करे। कर्मों से मुक्ति पाना ही जीव का चरम लक्ष्य है और उसे ज्ञापित करना कर्मसिद्धान्त का। 15. जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक संसारी जीवों में उनके संसरण का कारण कर्म ही है। यहाँ कर्म भी त्रिविध माना गया है- भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म। इनमें भावकर्म तो जीव का मोह राग द्वेष रूप स्वकीय विकारी परिणाम ही है। जीव में होने वाले इन विकारी परिणामों के होने में निमित्त कारण हैं तो नोकर्म बहिरंग निमित्त कारण। 16. जैनकर्मवाद की अवधारणा से फलित होता है कि संसारी प्राणियों का जीवन चक्र जीवगत भावकों, पुद्गल स्वरूप द्रव्यकर्मों एवं नोकर्मों में परस्पर जायमान निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों की मर्यादा में ही चलता रहता है। यहाँ प्राणियों में होने वाले बन्धन या मुक्ति विषयक कार्यों अथवा पुरुषार्थों का आकलन निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धों की परिधि में ही