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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के संग से उत्पन्न होने वाले सुखरूपी अमृत से भरा हुआ है, सत् चित् आनन्द रूप है, संसार सागर के पार को प्राप्त है, गुणरूपी मणिसमूह की उत्पत्ति के लिए विशाल रत्नाकर समुद्रस्वरूप होकर भी, चैतन्यगुण की उत्तम लीला के समय को प्राप्त है, जिसने समस्त सुख प्राप्त कर लिया है, बड़े-बड़े योगी जिसे रत्नत्रय द्वारा प्राप्त करते हैं और जो अतिशय रमणीय है ऐसा शुद्धात्मा परमसमरसीभाव मोह क्षोभ से रहित शुद्धात्म परिणति से प्राप्त किया जा सकता है। - आचार्य, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005 समयपाहुड वंदित्तु सव्व सिद्धे धुवममलमणोवमं गदिं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणि॥1॥ मैं ध्रुव (शाश्वत), अमल (द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित), अनुपम (उपमा रहित) गति को प्राप्त सब सिद्धों को वन्दन करके श्रुत केवली द्वारा भणित (प्रतिपादित) इस समयपाहुड को कहूँगा। जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण। पुग्गल कम्मुवदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं॥2॥ जो जीव निश्चय से चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित (परिणत) है, उसको स्वसमय जानो और पुद्गल कर्म के उपदेश में स्थित (जीव) को परसमय जानो।
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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