________________
अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे। होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते॥ गाथा 15 हे जीव ! तू वस्त्रादि परिग्रह का त्याग होने पर दीक्षा में प्रवृत्त हो और उत्तम संयम भाव के होने पर सुतप में प्रवृत्ति कर। जो मनुष्य निर्मोह होता है उसी के वीतरागता होने पर उत्तम विशुद्ध ध्यान होता है।
द्रव्यसंग्रहकार लिखते हैंमा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं॥ गाथा 56
हे ज्ञानीजनो ! तुम कुछ भी चेष्टा करो अर्थात् काम के व्यापार को मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे, क्योंकि जो आत्मा में तल्लीन होता है वही परम ध्यान है।
आचार्य जिनसेन के अनुसारयोगो-ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः। अन्तःसंलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः॥ आदिपुराण 21/1
योग, ध्यान, समाधि, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चञ्चलता रोकना, स्वान्तनिग्रह, अर्थात् मन को वश में करना और अन्त:सलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के पर्यायवाचक शब्द हैं।
सर्वार्थसिद्धि में भी योग को समाधि कहा गया है। चित्तविक्षेप के त्याग अथवा एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। इष्टानिष्ट बुद्धि के हेतु मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है उस चित्त की स्थिरता को ध्यान करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा हैजस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो ण योगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अग्गी॥
(पंचास्ति. गा.146) जिसके राग, द्वेष, मोह नहीं है तथा जो मन, वचन, काय रूप योगों के प्रति उपेक्षा बुद्धि वाला है उस जीव के शुभाशुभ कर्मों को जलाने वाली ध्यान रूपी अग्नि उत्पन्न होती है।