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किरण ३ ]
निम्नोक्त उल्लेख पाया जाता है
सत्तण जो जसहरो, जसहर चरिए जणवए पयडो । कलिमल पभंजणो च्चिय, पभंजरणो श्रासि रायरिसी ॥ ४० ॥
इससे संवत् ८३५से पूर्व प्रभञ्जनका यशोधर चरित प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता था यह सिद्ध होता है । फिर भी प्रभञ्जनका वास्तविक समय अभीतक अन्वेषणीय है ।
निश्चित समयके ज्ञात ग्रन्थकारोंमें श्वे० जैनाचार्य हरिभद्रसूरिजीके “समराइचकहा " प्रन्थमें कथा - नायकके पूर्वभवके प्रसङ्गमें यशोधरकी कथा पाई जाती है। हरिभद्रसूरिका समय वि.की ९वीं शती निश्चित है । प्रभञ्जनके यशोधरचरितकी प्रति अनेकान्तमें प्रकाशित मूडबिद्री-भण्डारकी सूची से वहाँके भण्डारमें प्राप्त होने की सूचना मिलती है। संस्कृत भाषा में ३६१ श्लोकस्य प्रस्तुत चरितकी प्रति ४ पत्रोंकी है। मूडबिद्री भण्डारके सचालकोंसे अनुरोध है कि इस चरितको शीघ्र हो प्रकाशित करें, जिससे इसमें वर्णित चरितमें पिछले प्रन्थकारोंने क्या २ परिवर्तन किये अर्थात् कथाके विकास के विषय में विचार करनेका सुन्दर साधन सामने आ सके। जबतक वह प्रकाशित न हो, हरिभद्रसूरि के समरादित्य-चरितके अन्तर्गत यशोधरचरितको ही प्रधानता देकर पिछले चरित्र-ग्रन्थोंकी आलोचना करनेकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया जाता है ।
यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन- साहित्य
इनके परवर्त्ती चरित-ग्रन्थोंमें अपभ्रंशके महाकवि पुष्पदन्तका ‘जसदृरचरिउ' एवं महाकवि हरिषेण एवं अमरकीर्ति के अनुपलब्ध अपभ्रंश ग्रन्थ हैं । प्रभञ्जनके साथ हरिषेणके यशोधरचरितका उल्लेख वासवसेन ने अपने यशोधरचरितमें किया है । यथा
प्रभंजनादिभिः पूर्वं हरिषेण समन्वितैः । यदुक्त तत्कथं शक्यं मया बालेन भाषितुम् ॥ वासवसेनका समय मुझे ज्ञात नहीं है । उनके • उल्लिखित हरिषेण, धम्मपरिक्खा नामक अपभ्रश ग्रन्थके रचयिता होनेकी सम्भावना माननीय प्रेमीजीने (मुझे लिखित पत्रमें) की है। इसीलिये मैंने उसे अपभ्रंश भाषा में रचित होनेका निर्देश किया है ।
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पूर्ण निर्णय तो हरिषेणके यशोधर चरितकी प्राप्तिपर ही निर्भर है । सम्भव है खोज करनेपर वह किसी दिगम्बर जैन ज्ञान- भण्डार में उपलब्ध जाय । विद्वानोंका ध्यान उसके अन्वेषणकी ओर भी आकर्षित किया जाता है ।
११वीं शताब्दी के संस्कृत-यशोधरचरितोंमें सोमदेवसूरिका यशस्तिलक चम्पू विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। संवत् १०१६ ( शाके ८८१) के चैत्र शुक्ला १३ को गङ्गधार में इसकी रचना हुई है । यशोधरकी छोटी-सी कथाका विकास कविने कितने सुन्दर ढङ्गसे किया है, इसपर भलीभाँति प्रकाश डालनेके लिये भी विद्वानोंसे अनुरोध है । संवत् १०८४ के लगभग सुप्रसिद्ध विद्वान् वादिराजने ' ४ सर्गात्मक २९६ श्लोकोंका यशोधरचरित बनाया है । तंजौर के श्री टी० एस० कुप्पू स्वामी शास्त्रीने इसे प्रकाशित किया था, जिसका हिन्दी में सार श्रीउदयलालजी काशलीवालने सन् १९२८ में जैन - साहित्य - प्रसारक कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित किया था ।
११वीं शताब्दी के परवर्ती वासवसेन, वादिचन्द्र, चन्दपवर्णी आदिका समय निश्चित नहीं हैं । ज्ञात समय के चरित्रों का प्रारम्भ १५वीं शताब्दी में आरम्भ होता है और १६ से १८वीं शताब्दी में बहुतसे यशोधर चरित्रोंकी संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं में रचना हुई है, जिनका परिचय आगे दी जाने वाली सूची से भलीभाँति मिल जायगा । सूची से यह भी स्पष्ट है कि इसका प्रचार कन्नड, गुजरात राजपूताने आदि में सर्वत्र था । यशोधरचरितकी प्रसिद्धिका कारण
जैनधर्मका सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण आदर्श अहिंसा है। वास्तव में वह जैनधर्मकी आत्मा है । १ वादिराज के पार्श्वनाथचरित्रका रचना काल शक सं० ६४७ है। पार्श्वनाथचरित्रका उल्लेख उनके यशोधरचरित्रमें होनेसे उसका निर्माण पार्श्वनाथचरित्र के बाद ही हुश्रा सिद्ध होता है । अपने काकुस्थचरित्र का उल्लेख भी आपने इस ग्रन्थ में किया है पर वह प्राप्त नहीं है, इस लिए उसकी भी खोज होना श्रावश्यक है ।
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