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________________ १०४ अनेकान्त [ वर्ष ९ इन सब बातों अथवा कारणोंसे यह स्पष्ट है कि अनुसार यह कह ही नहीं सकते कि वह ग्रन्थका न्यायावतारमें 'आप्तोपज्ञ' नामक ९वें पद्यकी स्थिति अङ्ग नहीं-ग्रन्थकारके द्वारा योजित नहीं हुआ बहुत ही सन्दिग्ध है, वह मूल ग्रन्थका पद्य मालूम अथवा ग्रन्थकारसे कुछ अधिक समय बाद उसमें नहीं होता । उसे मूलग्रन्थकार-विरचित ग्रन्थका प्रविष्ट या प्रक्षिप्त हुआ है। चुनाँचे प्रो० साहबने वैसा आवश्यक अङ्ग माननेसे पूर्वोत्तर पद्योंके मध्यमें उसकी कुछ कहा भी नहीं और न उस पद्यके न्यायावतारमें स्थिति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रन्थकी प्रतिपादन-शैली उद्धृत होनेकी बातका स्पष्ट शब्दोंमें कोई युक्तिपुरस्सर भी उसे स्वीकार नहीं करती, और इसलिये वह विरोध ही प्रस्तुत किया है-वे उसपर एकदम अवश्य ही वहाँ एक उद्धृत पद्य जान पड़ता है, जिसे मौन हो रहे हैं । 'वाक्य'के स्वरूपका समर्थन करनेके लिये रत्नकरण्डपरसे 'उक्तञ्च' आदिके रूपमें उदधत किया गया है। अतः ऐसे प्रबल साहित्यिक उल्लेखोंकी मौजूदगीउद्धरणका यह कार्य यदि मूलग्रन्थकारके द्वारा नहीं में रत्नकरण्डको विक्रमकी ११वीं शताब्दीकी रचना. .. हुआ है तो वह अधिक समय बादका भी नहीं है: अथवा रत्नमालाकारके गुरुकी कृति नहीं बतलाया क्योंकि विक्रमकी १०वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य जा सकता और न इस कल्पित समयके आधारपर सिद्धर्षिकी टीकामें यह मूलरूपसे परिगृहीत है, जिससे उसका आप्तमीमांसासे भिन्नकतत्व ही प्रतिपादित यह मालूम होता है कि उन्हें अपने समयमें न्याया किया जा सकता है । यदि प्रो० साहब साहित्यके वतारकी जो प्रतियाँ उपलब्ध थीं उनमें यह पा उल्लेखादिको कोई महत्व न देकर ग्रन्थके नामोल्लेखमूलका अङ्ग बना हुआ था। और जबतक सिद्धर्षिसे को ही उसका उल्लेख समझते हों तो वे प्राप्तमीमांसापूर्वकी किसी प्राचीन प्रतिमें उक्त पद्य अनुपलब्ध न को कुन्दकुन्दाचार्यसे पूर्वकी तो क्या, अकलङ्कके हो तबतक प्रो० साहब तो अपनी विचार-पद्धति के समयसे पूर्वकी अथवा कुछ अधिक पूर्वकी भी नहीं कह सकेंगे; क्योंकि अकलङ्कसे पूर्वके साहित्यमें उसका १ प्रो० साहबकी इस विचारपद्धतिका दर्शन उस पत्रपरसे नामोल्लेख नहीं मिल रहा है। ऐसी हालतमें प्रो० भले प्रकार होसकता है जिसे उन्होंने मेरे उस पत्रके साहबकी दूसरी आपत्तिका कोई महत्व नहीं रहता, उत्तरमें लिखा था जिसमें उनसे रत्नकरण्डके उन सात वह भी समुचित नहीं कही जा सकती और न उसके पद्यों की बाबत सयुक्तिक राय माँगी गई थी जिन्हें मैंने द्वारा उनका अभिमत ही सिद्ध किया जा सकता है। रत्नकरण्डकी प्रस्तावनामें सन्दिग्ध करार दिया था और (अगली किरणमें समाप्त) जिस पत्रको उन्होंने मेरे पत्र-सहित अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष ६ कि० १ पृ० १२) में प्रकाशित किया है। वीरसेवामन्दिरको सहायता श्रीमान् ला० घनश्यामदासजी जैन सङ्घी मुलतान वाले प्रोप्राइटर 'इन्द्राहोजरी मिल्स' जयपुरने, । पं० अजितकुमारजी शास्त्रीकी प्रेरणाको पाकर स्वर्गीय ला विहारीलालजीके दानमेंसे १२५) रु० वीरसेवामन्दिरको उसकी लायब्रेरीकी सहायतार्थ प्रदान किये हैं। इसके लिये उक्त लाला साहब और शास्त्रीजी दोनों ही धन्यवादके पात्र हैं। अधिष्ठाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527253
Book TitleAnekant 1948 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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