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अनेकान्त
[ वर्ष ४
पुरातनकाल में यति मुनि जहाँ भी पतिष्ठा करवाते थे बड़े आश्चर्यको बात नहीं है। दूसरा जो चिन्ह है वहाँ के लेखोंकी पतिलिपि अपने दफ़तरोंमें याददाश्त वह शा त्रका द्योतक है। साथमें इस बातका भी के लिये रखते थे। श्रीपूज्योंके दफ्तरोंको ऐतिहासिक स्मरण रखना चाहिए कि उपर्युक्त दोनों चिन्ह सभी दृष्टिसे संशोधित परिवर्धित करके यदि पकाशित मूर्तियों में नहीं पाये जाते हैं। किया जाय तो ऐतिहासिक सामग्रीमें बहुत कुछ अभिदिगम्बर और श्वेताम्बर संपदाय-भेद होनेका वृद्धि हो सकती है।
इतिहास तो पाया जाना है मगर मूर्तियों में कब भेद एक बात यहां पर और भी उल्लेखनीय है, जो पैदा हया यह बात की रूपम नहीं कह सकते । इस माशास्त्रज्ञाक लिय बड़ा ही महत्त्वपूण सिद्ध भेदक इतिहासका लिखनके पहिले पाचीनस पाचीन होगी, और वह यह कि दिगम्बर व श्वेताम्बर दानों दि० व श्वे० मूर्तियों के फोटो तथा विस्तृत परिचय संपदायोंकी मूर्ति-निमोण-कला भी पायः भिन्न रही दकर एक महान ग्रंथ तैयार करना चाहिए। क्या है । हमने दि० संपदायका काफी मूर्तियों का अध्ययन दानों संपदायक विद्वान व श्रीमान इस बात पर ध्यान किया है। उस परसे हम कह सकते हैं कि दि० देंगे? यदि यह कार्य किया जाय तो बहुत बड़ी उलमर्नियोंके आगेके भागमें पायः एक ओर चरण, भने सुलझ जायंगी। जैनमूर्ति-पूजा-शा त्र' नामक दूसरी ओर 'नमः' पाया जाता है । ये दा चिन्ह क्या निबन्ध (thesis) Ph.d. की डिग्री के लिये मेरे गुरुबनाये जाते हैं समझमें नहीं आता! लकिन मरा यह वर्य उपाध्याय श्रीसुखसागरजीन लिखा है । इस ग्रथ अनुमान है कि चरण इस लिये बनाये जाते होंगे कि
में दानों संपदायांक पाचीन-अर्वाचीन मूतियों के कुछ समय पूर्व दि० संपदायमें साधु विच्छेद हागय
फाटा दिये जावगे।
(क्रमशः) थे इस वास्ते चरणका गुरुक रूपमें मानते हा ता काई
वीरसेवामन्दिर सरसावाकी भीतरी बिल्डिगके एक भागका दृश्य