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________________ ४३८ अनेकान्त सूत्र और भाष्य दानों के साथ जुदा जुदा उमास्वातिवाचकोपज्ञ जैसा विशेषण लगा देते; परंतु ऐसा कुछ भी किया नहीं अतः वह पद सप्तमीका एकवचन नहीं है और न उससे एककर्तृना ही सिद्ध होती है । अब देखना यह है कि सिद्धसेनगणी इस विषय में संदिग्ध क्योंकर हैं । सिद्धसेनकी टीकाको यदि गहराई के साथ अवलोकन किया जाता है तो उससे यह पता चलता है कि उन्होंने हरिभद्रसूरि जैसे अपने कुछ पूर्ववर्ती विद्वानांके कथनपरसे यह ग़लत धारणा तो करली कि भाष्य और तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता एक ही व्यक्ति हैं परन्तु वैसी धारणाको सुदृढ रखने के लिये कोई भी पुष्ट प्रमाण उपलब्ध न होने से वे उस विषय में बराबर शंकाशील अथवा संदिग्ध रहे हैं- भले ही आम्नायवश वे दोनोंकी एकताका कुछ प्रतिपादन भी करते रहे हों। उनकी इस स्थितिका प्रधान कारण एक तो यह जान पड़ता है कि भाष्यकं साथमें जो ३१ संबंध - कारिकाएँ हैं उनमें — २२ वीं और ३१ वीं कारिकाओं में - ' वक्ष्यामि ' ( वक्ष्यामि शिष्य हितमिममित्यादि ) ' पत्रक्ष्यामि ' ( मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ) जैसे एकवचनान्त प्रयोग पाये जाते हैं; जबकि भाष्य में सब जगह ' उपदेक्ष्यामः ' ( ' विस्तरेणोपदेक्ष्यामः ' सि० टी० पृ० २५,४१ ) और वक्ष्यामः' (' पुरस्तादवक्ष्यामः' 'मन:पर्ययज्ञानं वक्ष्यामः ' सि० टी० पृ० ७६, १०० ) जैसे बहुवचनान्तक्रिया पद ही नज़र आते हैं और ऐसे स्थल भाष्य में १३ हैं । इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि सम्बंध कारिकाओंके और भाध्यके कर्ता जुदे जुदे हैं । सम्बंध कारिकाओं के कर्ता एक व्यक्ति शायद उमास्वाति हैं और भाष्य के कर्ता कोई दूसरे - संभवतः अनेक हैं। 6 [ वर्ष दूसरा कारण यह मालूम होता है कि भाष्यकारने, अपने भाष्य में, अनेक स्थलोंपर ऐसे वाक्य लिखे हैं जिनले स्पष्ट मालूम होता है कि भाध्यकर्तासि सूत्रकर्ता जुदे हैं । यथा: 'श्राद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह ' ( पृ० ११७) । “आद्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्या दौदारिकमाह ” ( पृ० २०७ ) । 66 बन्धे पुरस्ताद् वक्ष्यति ( पृ० २१० ) । " वक्ष्यति च स्थितौ 'नारकारणां च द्वितीयादिषु' ( पृ० २२८ ) “ उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह ” ( द्वि० खं० पृ० ३९ ) 66 सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह "" ( द्वि० खं० पृ० २४९ ) इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए प्रथमपुरुष के एकवचनात्मक क्रियाकं प्रयोग साफ़ सूचित करते हैं कि भाष्यकार, जो अपना उल्लेख उत्तमपुरुष के बहुवचनमें करते आए हैं, अपनेसे सूत्रकारको जुदा प्रगट कर रहे हैं । मालूम होता है इन दोनों कारणों से सिद्धसेनगरणी अपनी धारणा में संदिग्ध हुए हैं, परन्तु आम्नाय अथवा हरिभद्रक कथनकी रक्षाके लिये उन्हें निर्हेतुक वाक्य-रचना करके यह कहना पड़ा है कि सूत्रकार से भाष्यकार अविभक्त है। ऐसे कथन के स्थल सिद्धसेन गणीकी टीका में दो जगह नजर आरहे हैं। एक स्थल तो प्रथम अध्यायके ११ वें सूत्रके भाष्य में प्रयुक्त हुई ' शास्ति ' क्रिया सम्बन्ध रखता है । इस क्रिया का स्पष्ट आशय वहां यह है कि सूत्रकार शिक्षा ( उपदेश ) देता है । इसी ' शास्ति ' क्रियासं संदिग्ध होकर सिद्धसेनगणी आम्नायक-थनकी रक्षार्थ अपनी टीका में लिखते हैं—
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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