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विश्व-संस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान
(ले०-डा० कालीदास नाग, एम० ए०, डी. लिट० )
pa नधर्म और जैन संस्कृतिक विकासके पीछे यह तो जानवरों, देवताओं और पाताल वासियोंके लिये भी Fa! शताब्दियोंका इतिहास छिपा पड़ा है। श्री है। विश्वात्मक सहानुभूति-सहित यह व्यापक दृष्टि और
बौद्धोंका मैत्रीका सिद्धान्त दोनों बातें जैनधर्ममें अहिंसाके ऋषभदेवसे लेकर बाईस अहंत श्री नेमि
आध्यात्मिक सिद्धान्त-द्वारा मौजूद हैं। इसलिये जैनधर्म नाथ तक महान् तीर्थंकरोंकी पौराणिक परं
और बौद्धधर्मका तुलनात्मक अध्ययन बहुत पहलेसे ही पराको छोड़ भी दें, तो भी हम अनुमानतः ईसवी सनसे
किया जाना चाहिये था। याज ईसवी सनसे पहलेके १००० ७२ वर्ष पूर्वके ऐतिहासिककालको देखते हैं. जब तेईसवें
वों में हिन्दुस्तानके आध्यात्मिक सुधारके आन्दोलनोंको जो अर्हत श्रीभगवान पार्श्वनाथका जन्म हुआ, जिन्होंने तीस वर्ष
सममना चाहते हैं, उनके लिये इस प्रकारके तुलनात्मक की आयुमें घर-गृहस्थी त्याग दी और जिनको अनुमानतः
अध्ययनकी अनिवार्य आवश्यकता है । वह समय एशियाभर ईसवी सनसे ७७२ वर्ष पूर्व बिहारके अन्तर्गत पार्श्वनाथ
में उग्र राजनैनिक और सामाजिक उलट-फेरका था, उसी पहाड़ पर मोक्ष प्राप्त हुआ। भगवान पार्श्वनाथने जिस
समय एशियामें कई महान दृष्टा और धर्म संस्थापक उत्पन्न मिगन्थ सम्प्रदायकी स्थापना की थी, उसमें काल-गतिसे
हुए, जैसे ईरानमें जरथुस्त्र और चीनमें लापोरजे और उत्पन्न हुए दोषोंका सुधार श्रीवर्धमान महावीरने किया।
। कनफ्यूसियस। महावीर अपनी प्राध्यात्मिक विजयकं कारण 'जिन' अर्थात्
जैनधर्म और ब्राह्मणधर्मके सम्बन्धके बारेमें हम देखते विजयी कहलाते हैं। अतएव जैनधर्म, अर्थात् उन लोगोंका
हैं कि साराका सारा जैनसाहित्य ब्राह्मण संस्कृतिकी ओर धर्म जिन्होंने अपनी प्रकृति पर विजय प्राप्त करली है, एक बौद्ध लेखकोंके विचारोंकी अपेक्षा ज्यादा मुका हुआ है। महान् धर्म था, जिसका आधार आध्यात्मिक शुद्धि और डाक्टर विंटरनिज. प्रो. जैकोबी और दूसरे कई विद्वानोंने विकास था। इससे यह मालूम हुआ कि महावीर किसी इस बातको ज़ोरदार शब्दों में स्वीकार किया है कि जैन धर्मके संस्थापक नहीं, बल्कि एक प्राचीन धर्मके सुधारक थे। लेखकोंने भारतीय साहित्यको सपम्न बनाने में बड़ा महत्वप्राचीन भारतीय साहित्यमें महावीर गौतम बुद्धके कुछ पहले पूर्ण हिस्सा अदा किया है। कहा गया है कि “भारतीय उत्पन्न हुए उनके समकालीन माने जाते हैं। जैनसाहित्यमें साहित्यका शायद ही कोई अंग बचा हो. जिसमें जैनियोंका कई स्थानों पर गौतम बुद्धके लिये यह बतलाया गया है कि अत्यन्त विशिष्ट स्थान न रहा हो।" वे महावीरके शिष्य गोयम नामसे प्रसिद्ध थे। बादमें उत्पन्न इतिहास और वृत्त, काव्य और पाख्यान, कथा और हुए पक्षपात और मतभेदके कारण बौद्ध लेखकोंने निगन्थ नाटक, स्तुति और जीवनचरित्र, व्याकरण और कोष और नातपुत्त (महावीर) को बुद्धका प्रतिपक्षी बताया। वास्तवमें इतना ही क्यों विशिष्ट ज्ञानिक साहित्यमें भी जैन लेखकों दोनों के दृष्टिकोणों में फर्क था भी। यही कारण है कि बौद्ध की संख्या कम नहीं है। भद्रबाहु, कुन्दकुन्द, जिनसेन, धर्मका दुनियाके बड़े भागमें प्रसार हुआ, किन्तु जैन धर्म हेमचन्द्र. हरिभद्र और अन्य प्राचीन तथा मध्यकालीन एक भारतीय राष्ट्रीय धर्म ही रहा। किन्तु फिर भी जैसा लेखकोंने अाधुनिक भारतवासियोंके लिये एक बड़ी सांस्कृतिक डाक्टर विंटरनिज़ने कहा है, दर्शनशास्त्रकी दृरिटसे जैनधर्म भी सम्पत्ति जमा करके रखदी। इस बातका प्रतिपादन तपगच्छ एक अर्थमें विश्वधर्म है। वह अर्थ यह है कि जैनधर्म न सब के सुप्रसिद्ध जैन आचार्य, लेखक और सुधारक श्रीयशोकेवल जातियों और सब श्रेणियोंके लोगोंके लिये ही है. बल्कि विजयजीने किया है, जिनका समय सन् १६२४-८८ के