SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसाका अतिवाद [ ले० श्री दरबारीलाबजी सत्यभक्त ] त्रातिवाद एक ऐसा विप है जो स्वाद में अमृत खाओ, तब मैं महात्मा महावीरकी अहिंसाका पाठ पढा सरीखा भले ही लगे पर परिपाक में सर्वनाश ही नेवाली शैलीसे आश्चर्यचकित हो गया। यह एक मनोकरता है । इसलिए अहिंसाका भी अतिवाद घोर वैज्ञानिक सत्य है कि किसी चीज़को अगर तुम माँसकी हिंसा बढ़ाने वाला हो जाता है । इसका एक नमूना कल्पना करते हुए खा सकते हो तो एक दिन माँसके मुझे अभी अभी एक जैन पत्रमें पढ़नेको मिला। लेख प्रति तुम्हारी सहज घृणा नष्ट हो जायगी। के लेखक हैं प्रसिद्ध विद्वान श्री कालेलकर, शीर्षक है मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब संक्रान्तिके 'हृदय नो समभाव ।' अवसर पर गड़ियाघुल्ला ( शक्करके हाथी घोड़े ऊँट __ लेखकने पशुपक्षियोंकी दयाका चित्रण किया है आदि ) खाते समय कह बैठता था-मैं इसकी पंछ खाता आनन्दसे उछलने वाले घेटेकी हिंसाका करुण चित्रण हूँ, सिर खाता हूँ आदि । तब पिताजी नाराज होते थे किया है, इस बात पर आश्चर्य प्रगट किया है कि बकरे और अन्तमें उन्होंने शक्करके जानवर खरीदना बन्द कर के अंग खाते समय लोग यह क्यों नहीं विचारते हैं दिया था तबसे वे शक्कर के मन्दिर मकान आदि खरीद कि इसी सिरमें कैसा उल्लास श्रानन्द था । इसके बाद देते थे । उनने मुझे यह सिखा दिया था कि शक्कर में अहिंसाकी यह धारा बहते बहते वनस्पतियोंमें पहुँची भी अगर पशुकी कल्पना आ जाय तो उसके खानेमें है। यहाँ तक कि लकड़ियाँ वृक्षोंकी हड्डियाँ कहलाकर पाप लगता है । दयापात्र बनी हैं इमारतके लिये लकड़ी चीरी जाती है जब हम वृक्षकी छाल आदिको पशुके चमड़े, हड्डी, तो लेखकको हड्डी चीरनेका कष्ट होता है इस प्रकार माँस, नस, खून आदि की तुलनामें खड़ा करके अतिवृक्षके फलं खाना और जानवर खाना, दोनोंकी क्रूरता वादी भावुकतासे अहिंसाकी साधना करते हैं तब मंत्रएक ही श्रेणीमें खड़ी कर दी गई है। भ्रष्ट साधककी तरह हमारे जीवन में प्रतिक्रिया होती है । ___ इसमें सन्देह नहीं कि विश्वप्रेमी या परम अहिंसक जब हम टमाटर के रससे बकरेके रक्तमाँसकी तुलना वृक्षोंकी भी दया करेगा। जैनाचारमें जैन मुनियोंके करेंगे सूखी बनस्पतिको सूखा माँस और हड्डी समझेंगे, लिए सूक्ष्म-अहिंसाके पालन के लिये काफी विधान हैं फिर और इनके बिना जीवन-निर्वाह न होनेसे उन्हें खाते भी जैनधर्मकी अहिंसामें ऐसा अतिवाद या एकान्त भी जाँयगे, तो इसका परिणाम यह होगा कि एक दिन दृष्टि नहीं है अनेकान्त दृष्टिने जैनधर्मकी अहिंसाको टमाटरकी घृणाकी तरह बकरेके माँसकी घुणा भी शिथिल निरतिवाद या व्यवहार्य बना दिया है। हो जायगी । इस प्रकार यह अहिंसाका अतिवाद हिंसाके वर्षों पहिले जब मैंने जैनशास्त्रोंमें यह पढ़ा कि प्रचार में साधक बन जायगा। विवेकहीन अहिंसाका जिस चीजमें तुम्हें माँसकी कल्पना श्राजाय वह मत प्रवाह अशक्यताकी पर्वत श्रेणीसे टकराकर ठेठ हिंसाकी
SR No.527162
Book TitleAnekant 1940 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy