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________________ ४७८ अनेकान्त [ वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६ लेने ही से जगत विकाशन कार्य सम्भव हो सकता है । तो यह कि कपिल दर्शन अधिकांशमें चैतन्यवादी है और जैन-दर्शन विशेषरूपमें जड़वादी है । सांख्य दर्शनकी आलोचना करने वाले के हृदय में पहले ही यह उदय होगा कि प्रकृतिका स्वरूप क्या है ? वह जड़ है या चैतन्य ? स्वभावतः प्रकृति सम्पूर्णरूपमें जड़ है, यह नहीं कहा जा सकता । जिसे जड़ पदार्थ कहते हैं; साधारणतः वह प्रकृति की विकृत क्रियाका ही शेष परिणाम हुआ करता है, तो फिर प्रकृति क्या है ? भिन्नभावापन्न गुण समूहों की साम्यावस्था ही प्रकृतिका स्वरूप है । सांख्य दर्शन में स्पष्टरूप में प्रकृतिके ये ही लक्षण बताये हैं । इन्द्रिय- गोचर जड़ पदार्थ विभिन्न भाव वाले तीन गुणोंकी साम्यावस्था नहीं है । यह वो सहज ही में समभ् में आने वाली बात है । बहुमें जो कि एक है, वह नाना प्रकार के गुण पर्या रहकर भी जब कि अपने एकत्वकी रक्षा करने में समर्थ है, वह अवश्य ही कोई जड पदार्थ न होकर कोई अध्यात्म पदार्थ होगा, यह सभी समझ सकते हैं, भूयो दर्शन या तत्व विचारसे भी यह सिद्ध होने योग्य बात है । ऐसी दशा में विभिन्न भाषापन त्रिगुणात्मक प्रकृति के द्वारा यदि जगद्विवर्त - क्रिया सम्पन्न होती है ऐसा स्वीकार कर लिया जाय, तो प्रकृतिको एक अध्यात्म पदार्थ मानना ही पड़ता है, और भिन्न २ तीनों गुणों को उसी अध्यात्म पदार्थ प्रकृतिके स्वात्मविकाशके तीन प्रकार भी मानना पड़ता है, । यदि प्रकृतिको स्वभावतः एकान्त भिन्न तीन गुणों का अचेतन संघर्ष मात्र विवेचन किया जाय तो प्रकृतिके द्वारा किसी भी पदार्थका पैदा होना संभव नहीं होता । सुतर प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ के रूपमें स्वीकार कर प्रकृति से पैदा होने वाले, तत्व समूहों में पहले तस्व महतव बुद्धितत्व हैं । ये जड परमाणु पत्थर या किसी प्रकार के जड पदार्थ नहीं हैं, बल्कि ये एक अध्यात्म पदार्थ हैं, अहङ्कार कहलाने वाला दूसरा तत्व भी अध्यात्म पदार्थ ही है, उसके बाद इन्द्रिय, पंचतन्मात्रा, इसी प्रकार क्रमशः महाभूतों की सृष्टि देखने में आती है। यदि प्रकृतिको सम्पूर्ण जड प्रकृति ही स्वीकार कर लिया जाय, तो प्रकृतिकी यह विश्व सृष्टि-क्रिया एक बे मतलब और समझ में न आनेवाला विषय बन जाता है । महतव और अहङ्कार अध्यात्म पदार्थ हैं, कपिलके मतसे ही स्पष्ट है कि कार्य और कारण एक ही स्वभावके पदार्थ हैं। ऐसी दशा में पैदा हो चुकने वाले तत्त्र समूहों की तरह प्रसव करने वाली प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ कहना कोई युक्तिहीन बात नहीं हो सकती। यदि सचमुच प्रकृति सम्पूर्णतः जड स्वभाव वाली है, तो जङस्वभाव व पंचतन्मात्रा के पैदा होनेके पहले क्यों और कैसे दो अध्यात्म पदार्थों का समुद्भव होता है, यह समझके बाहरकी बात है। हाँ यदि प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ अनुमान कर लिया जाय, तो सभी बातें सुगम हो जाती हैं। इसमें कोई भी सन्देह नहीं । प्रकृति बीजरूपी चित्पदार्थ है, इसके पूर्णरूप से विकसित या विकाशप्राप्त होने की दशा में सबसे पहले आत्मज्ञान और लक्ष्यज्ञान की आवश्यकता होती है। बुद्धितत्व और
SR No.527162
Book TitleAnekant 1940 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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