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________________ ४७६ ] आलोचित हुए हैं। अतः इस विषय में जैन और न्यायदर्शन में बहुत कुछ समता पाई जाती है । किन्तु यदि यह कहा जाय कि न्यायदर्शन के अध्ययन कर लेने पर जैनदर्शन के अध्ययनकी आवश्यकता ही नहीं, तो यह एक बहुत बड़ी भूल की बात होगी। कारण, ये दोनों दर्शन बहुत अंशों में मिलते-जुलते हुए भी एक दूसरे से सम्पूर्णतया पृथक पृथक हैं । स्याद्वाद और सप्ताङ्गीनय नामक प्रसिद्ध युक्तिवाद गौतमदर्शन में नहीं है, वह जैनदर्शनका ही गौग्व है. इस बातको मानना ही पड़ेगा । भारतीय दर्शन समूहों में जैन दर्शनका क्या स्थान है। यह उपर्युक्त वर्णनसे बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। बहुतों का मत है कि जैनमत बौद्धमतके अन्तर्गत है । लासेन और वेबर ने जैन धर्मकी सत्ताको स्वतन्त्ररूप से स्वीकार नहीं किया । यहाँ तक कि ईसवी सन्के सप्तम शताब्दीक व्यक्ति हुएनसङ्गने भी जैनधर्मको बौद्ध धर्मकी एक शाखा मात्र ही माना है । वीलर और जैकोबीक मतानुसार जैनधर्म एक स्वतन्त्र धर्म है, और बौद्ध धर्म - के पहले भी यह मत वर्तमान था ऐसा स्पष्टरूप से स्वीकार किया गया है। कुछ भी हो हम लोग इस पुराने तत्व के विषय में किसी प्रकारका विवाद नहीं करना चाहते, यह तो हम पहले ही कह चुके हैं कि हम लोगों का यह दृढ़ विश्वास है कि बौद्ध तथा जैन धर्म उनके उस समय के प्रवर्तकगणो के बहुत पहले ही से वर्तमान थे । बौद्धमत बुद्धदेवसे उत्पन्न नहीं, उसी प्रकार जैनमत भी वर्द्धमानके द्वारा ही नहीं उत्पन्न हुआ । प्रतिवादोंके कारण [ वैसाख, वीर- निर्वाण सं० २४६६. जिस प्रकार उपनिषदों की उत्पत्ति मानी जाती है, ठीक उसी प्रकार वेदशासन और कर्मकाण्डों के विरुद्ध जैन तथा बौद्धदर्शनकी उत्पत्ति मानना चाहिये । हुएनसङ्गने जिन कारणोंस जैनधर्मको बौद्ध धर्म के अन्तर्गत माना है, वे यहाँ स्पष्टरूप से प्रगट हो रहे हैं । वे जिस समय यहाँ आये थे उस समय भारतवर्ष में बौद्धधर्म प्रबल हो रहा था । हम लोगोंने पहले भी कहा है कि अहिंसा और त्याग ये दोनों बौद्ध धर्मके मुख्य उपदेश हैं, वैदिक क्रिया कलापोंके विरुद्ध बौद्धों का जो युद्ध हो रहा था, उसमें आत्मरक्षा तथा आक्रमणके लिये अहिंसा और त्याग ये ही दो प्रधान अस्त्र थे । और अवैदिक सम्प्रदायमात्र अहिंसा और त्यागके पक्षपात में थे । वैदिक यज्ञादि हिंसालिप्त एवं परलोकके नाशशील सुख प्राप्तिके लिये ही अनुष्ठित हुआ करते थे। जैन धर्मको भी वेदका शासन श्रमान्य था । जहाँतक अनुमान है, त्याग और अहिंसाको जैन समाजमें इसीलिये इतना ऊँचा स्थान दिया गया है। कदाचित इसी दृष्टिसे बाहरी रूपमें जैनधर्म तथा बौद्ध धर्म एकसे प्रतीत होते थे, क्योंकि दोनों ही वेदविधिको न माननेवाले तथा सन्न्यास और अहिंसा के पक्षपाती थे। ऐसी दशा में बाहरी रूपको देखकर यदि कोई विदेशी पर्यटक इन दोनों धर्मोको एकही वस्तु समझले तो इस विषय में कोई आश्चर्यकी बात न होगी। पर इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि ये दोनों धर्म तत्वतः एकही हैं । इन दोनों धर्मोंके आचार-समूह प्राय: एकसे होते हुये भी तत्वतः वे एक दूसरे से पूर्ण भिन्न हो सकते हैं । दृष्टान्तके रूपमें कहा जा सकता है कान्त
SR No.527162
Book TitleAnekant 1940 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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