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मुक्ति मार्ग
सुभाष चन्द्र जैन
लगभग सभी धर्मों का एक मल सिद्धांत है - "जैसा बोओगे, वैसा भिन्न होती है । सुक्ष्म जीवाणु में इनकी अभिव्यक्ति बहत सूक्ष्म होती है और काटोगे "। इस सिद्धांत को दूसरे शब्दो में कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्राणी मुक्त आत्मा (परमात्मा) में इनकी अभिव्यक्ति अनन्त होती है। मनुष्य में अन्य को अपने कार्यों का फल भगतना पठता है । यह सम्भव है कि प्राणी मत और प्राणियों की अपेक्षा इन गणों की अभिव्यक्ति अधिक होती है । दर्शन और वर्तमान के सभी कार्यों का फल इस जन्म मे न भोग पाए । यह कथन पुनर्जन्म ज्ञान गणों का कार्य जानना है । जानना दो प्रकार का होता है- निर्विकल्प की ओर इंगित करता है। जब तक कार्यों का फल शेष रहता है, तब तक शेष जानना और सविकल्प जानना । निर्विकल्प जानना, जो आत्मा का अपना फल को भोगने के लिए फिर से जन्म लेना पडता है । पुनर्जन्म के चक्कर से स्वभाव है, राग-द्वेष रहित होता है और सविकल्प जानना, जो आत्मा का मक्ति दिलाने वाला मार्ग को मक्ति मार्ग कहते हैं।
विमाव है, राग-द्वेष सहित होता है। राग-द्वेष की उत्पति का मूल कारण है मुक्ति मार्ग को जानने से पहले कार्य का अर्थ समझना आवश्यक है
सविकल्प जानने की किया, जिसके कारण मनुष्य की यह मिय्या मान्यता है
कि मै शरीर हैं। जानने की क्रिया हर समय हो रही है, परन्तु एक समय में । इच्छाएं, जिन से राग-द्वेष उत्पन्न होता है, उनके द्वारा मन, वचन, और
एक प्रकार का ही जानना समंव है निर्विकल्प या सविकल्प। मनुष्य किस प्र काय के क्रियाकलाप के परिचालन को कार्य कहते हैं । कार्य तीन प्रकार का
कार के जानने की किया करे, यह उसके परचार्य, जो वीर्य गण की पर्याय है, होता है - अशुभ, शुभ, और शुद्ध । शुम और अशुभ कार्य राग-द्वेष की तीव्रता पर निर्भर है । जो कार्य तीव्र राग-द्वेष द्वारा किए जाते हैं, वें अशुभ कार्य होते
पर निर्भर है । निर्विकल्प जानने की क्रिया को आत्म-अनुभव' या 'स्वानुभव
के नाम से भी जाना जाता है। हैं और उनका फल अहितकर होता है । जो कार्य मंद राग-द्वेष से किए जाते है, उन्हे शुभ कार्य कहते हैं, और उनका फल हितकर होता है । जो कार्य राग
अब प्रश्न होता है कि निर्विकल्प जानने की क्रिया को कैसे पकडे द्वेष रहित किए जाते हैं, वें शुद्ध कार्य होते हैं, और उनका कोई फल नहीं होता ? इस क्रिया को पकठने का एक ही उपाय है - च्यान। ध्यान का अर्थ है चित्त । इसलिए राग-द्वेष रहित कार्य करने वाले प्राणी को पुनर्जन्म की आवश्कता की एकाग्रता द्वारा उसकी वृतियों का निरोष । ध्यान का लक्ष्य है नहीं पड़ती। उक्त कार्य मेद से यह साराशं निकला कि राग-द्वेष रहित कार्य आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना । ध्यान चार प्रकार का होता है - आर्त, रौद्र करना मक्ति मार्ग है।
, धर्म और शुक्ल । पहले दो प्रकार के ध्यान हेय हैं और शेष दो उपादेय हैं।
ध्यान का अभ्यास शरीर से प्रारम्भ होता है । सर्व प्रथम एकान्त मे बैठकर अब प्रश्न उठता है कि राग-द्वेष का कैसे विनाश किया जाए। इस
शरीर की शिथिलता को साधा जाता है और इसे कायोत्सर्ग के नाम से जाना प्रश्न का समधान करने से पहले यह चेतावनी देना आवश्यक है कि राग-द्वेष
जाता है। इसके पश्चात मंत्रजाप्य और स्तोत्रादि के पाठ (पदस्थ ध्यान) द्वारा, का विनाश करने की इच्छा पूरी करने मे दीर्घकालीन प्रयास चाहिए ।
मावना-भवन (पिण्ठस्थ ध्यान) द्वारा, तत्व-चिन्तवन अथवा निरीह वृति से वर्तमान इच्छाओं में एक और इच्छा जोउना दुविधा मे डाल देता है कि यदि
ज्ञाता-दष्टा मात्र (र-पस्थ ध्यान) द्वारा मानसिक एकाग्रता का अभ्यास किया वर्तमान इच्छाओं को पूरी करने का समय नहीं है तो नई इच्छा कैसे पूरी होगी। इस दुविधा का एक ही समाधान है कि वर्तमान इच्छाओं को कम कर
जाता है । धैर्यपूर्वक अभ्यास द्वारा एक क्षण ऐसा आयेगा जिस क्षण आत्मा
शरीर से अलग अनुभव होगी । इस अवस्था को चौथे गणस्थान के नाम से ताकि उन्हें पूरी करने मे कम समय लगे।
जाना जाता है । सतत साधना द्वारा इस अनुमति की अवधि को शनैः-शनैः राग-द्वेष का विनाश करने के लिए उसकी उत्पति का कारण बढ़ाया जा सकता है । गृहस्थ के योग्य साधना की छः प्रधान कियाएं हैं - देव जानना होगा । लोक में दी जाती के पदार्थ हैं । एक चेतन और दूसरा अचेतन पजा, गर--उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान । जैसे-जैसे इस (जड़) । चेतन तत्व का नाम जीव (आत्मा) है और जल तत्व का नाम पदगल अनमति की अवधि बढती है, राग-द्वेष कम होते जाते हैं । जैसे-जैसे राग-द्वेष है जिसके द्वारा शरीर का निर्माण होता है । यद्यपि आत्मा और शरीर एकमेक में कमी होती है, आत्मा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होती है । आत्मा की होकर रहते हैं, फिर भी आत्मा कमी शरीर और शरीर कमी आत्मा नहीं बन उन्नति के माप के लिए चौदह गणस्थानों का निर-पण आगम में किया गया सकता।
है । आत्मा चौदहवें गुणस्थान में पहचने पर आत्मा मुक्त हो जाती है। बँकि शरीर को इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है, इसलिए प्राणी
"निर्विकल्प उपयोग युक्त कार्य ही मुक्ति का मार्ग है। आसानी से शरीर से संबंध स्थापित कर लेता है । आत्मा को इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता है, इसलिए प्राणी आत्मा से तादाम्य नहीं हो पाता । आत्मा को केवल आत्मा ही जान सकता है, परन्तु आत्मा के बारे में इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है । आत्मा को जानने से पहले आत्मा के बारे में जानना होगा।
आत्मा के चार मल गुण हैं - दर्शन, ज्ञान, सख, और वीर्य (शक्ति)। मिन्न-भिन्न प्राणियों की आत्माओं में इन गणों की अभिव्यक्ति भिन्न
61 JAIN DIGEST- Summer 2003
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