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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्दज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 24, अंक - 1, जनवरी-मार्च - 2012,9-23 भारतीय प्रमाणशास्त्र के इतिहास में प्रत्यक्ष प्रमाण विचार (जैन प्रमाणशास्त्र के विशेष सन्दर्भ में) -गोकुलचन्द्र जैन* सारांश भारतीय प्रमाणशास्त्र का विकास विभिन्न चिन्तन धाराओं के सैद्धान्तिक समीक्षण प्रति समीक्षण के फलस्वरूप हुआ है। विकास की इस यात्रा में जैन और बौद्ध श्रमण परम्पराओं का महत्त्वपूर्ण अवदान है। जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने अपने-अपने शास्ताओं द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का तार्किक विवेचन करके उन्हें प्रमाणशास्त्रीय प्रतिष्ठा प्रदान की। इसके साथ ही परम्परागत मान्यताओं का, अवधारणाओं का तार्किक पद्धति से समीक्षण करके उन्हें सदोष बताकर संशोधनीय या अस्वीकार्य बताया। इसका सुफल यह हुआ कि सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा-वेदान्त आदि सभी दर्शनों में सैद्धान्तिक मान्यताओं की तार्किक दृष्टि से व्याख्यायें की गयीं। जैन दार्शनिकों ने बौद्ध तथा बौद्धदार्शनिकों ने जैन अवधारणाओं की परस्पर भी समीक्षा की। इस तरह भारतीय प्रमाणशास्त्र ने, जिसे बाद में न्यायशास्त्र (लॉजिक) नाम से अभिहित किया गया, नये चिन्तन को गतिमत्ता प्रदान की। प्रकृत में यहाँ विशेष रूप से प्रत्यक्ष प्रमाण पर विचार किया गया है। - सम्पादक भारतीय प्रमाण शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं- (1) प्रमाण का स्वरूप, (2) प्रमाण के भेद, (3) प्रमाण का विषय और (4) प्रमाण का फल । जैन दार्शनिकों ने न केवल प्रमाण का स्वरूप निर्धारण करने में प्रत्युत उसके भेद, प्रभेद, विषय और फल के विविचन में भी एक विशेष दृष्टि दी है। प्रमाण के स्वरूप के विषय में भारतीय प्रमाण शास्त्र में मुख्य रूप से दो दृष्टिया उपलब्ध होती 1. ज्ञान को प्रमाण मानने वाली। 2. इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानने वाली। जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना गया है। दोनों में अंतर इतना है कि जैन सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं, बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को। दूसरी परम्परा वैदिक दर्शनों की है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक सभी किसी न किसी रूप में इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानते हैं। जैन दार्शनिकों ने इन सभी की सदोषता का प्रतिपादन करके सम्यग्ज्ञान को प्रमाण का स्वरूप निश्चित किया है। पूर्व प्राध्यापक एवं संकायाध्यक्ष-श्रमण विद्या संकाय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि.वि., वाराणसी, सम्पर्क ई-1,शालीमार पाम्स, पिपल्याहाना,इन्दौर-452016
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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