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नहीं है, क्योंकि प्रमाण और फल भिन्न-भिन्न होते हैं । न्यायमंजरीकार ने लिखा है - 'अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्रीप्रमाणम् ।15
समीक्षा -
कारकसाकल्य की उपयोगिता को स्वीकारते हुए भी जैन दार्शनिकों ने विशेष रूप से इसका खण्डन किया है ।16-17 उनका कहना है :
1. कारकसाकल्य ज्ञन की उत्पत्ति में कारण अवश्य है, पर अर्थोपलब्धि में तो ज्ञान ही कारण है। इसलिए कारकसाकल्य को अर्थोपलब्धि में साधकतम कारण नहीं माना जा सकता।
2. यदि परम्परा कारणों को अर्थोपलब्धि में साधकतम कारण माना जाएगा तो जिस आहार या गाय के दूध से इन्द्रियों को पुष्टि मिलती है, उस आहार तथा दूध देने वाली गाय को भी साधकतम कारण मानना होगा। इस तरह कारणों का कोई प्रतिनियम ही नहीं रह जाएगा।
सांख्य का प्रत्यक्ष - लक्षण - इन्द्रियवृत्ति
सांख्य दर्शन में प्रत्यक्ष लक्षण के मुख्य तीन प्रकार हैं । पहला विंध्यवासी के लक्षण का, जिसे वाचस्पति ने वार्षगण्य के नाम से निर्दिष्ट किया है। 18 दूसरा ईश्वर कृष्ण के लक्षण का तथा तीसरा सांख्यसूत्र के लक्षण का।
हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा21 में वृद्धसांख्यों का प्रत्यक्ष लक्षण इस प्रकार दिया है - 'श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका प्रत्यक्षम् इति वृद्धसांख्याः । ईश्वरकृष्ण का लक्षण इस प्रकार है - 'प्रतिविषियाध्यवसायो दृष्टम् ।23 माठरवृत्ति24 तथा योगदर्शन व्यासभाष्य में इस प्रत्यक्ष का विस्तार से विवेचन किया गया है।
सांख्यों की मान्यता है कि अर्थ की प्रमिति में इन्द्रियाधीन अन्तः करणवृत्ति ही साधकतम है, अतः उसी को प्रमाण मानना चाहिए। वह जब विषय के आकार रूप में परिणमन करती है, तभी अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती है । इस प्रकार पदार्थ का सम्पर्क होने से पहले इन्द्रियों के द्वारा अन्तःकरण का विषयाकार होने से वृत्ति ही प्रमाण है। योगदर्शन व्यासभाष्य में लिया है --
'स इन्द्रियप्रणालिकया बाह्यवस्तूपरागात् सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्षम् । उक्त वृत्ति की प्रक्रिया के विषय में सांख्यप्रवचनभाष्यकार ने लिखा है -
अत्रेयं प्रक्रिया- इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्मिकर्षेण लिङ्ग ज्ञानादिना वा आदौ बुद्धेः अर्थाकारा वृत्तिः जायते ।27
सांख्या के प्रत्यक्ष प्रमाण की समीक्षा -
बौद्ध, जैन तथा नैयायिक तार्किकों ने सांख्यों के प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन किया है । बौद्ध तार्किक दिड्नाग ने प्रमाण समुच्चय में , नैयायिक उद्योतकर ने न्याय- वार्तिक29 में जयन्त भट्ट ने न्यायमंजरी में तथा जैन तार्किक अकलंक ने न्यायविनिश्चय:1 में विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक32 में, प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड 34 में, देवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर35 में तथा हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में इन्द्रियवृत्ति का विस्तार से निरास किया है। जिसका संक्षिप्त सार यह है
अर्हत् वचन, 24 (1), 2012