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________________ होना यह चाहिए कि संस्कृत ग्रन्थों की प्राकृत छाया हो ।आज समाज में एक भी प्राकृत पाठशाला नहीं । जबकि हमारे जैनागमों की मूल भाषा - प्राकृत भाषा है। तृतीय वक्ता के रूप में भाषा विज्ञान के विद्वान प्रो. वृषभप्रसाद जी ने श्रमण और वैदिक परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा कि दोनों परम्पराओं ने अपनी भाषा के विज्ञान को विकसित किया है और एक परम्परा ने दूसरे की परंपरा को (खासकर भाषा के क्षेत्र की) देखना प्राय: बन्द कर दिया है। संस्कृत को अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया गया और पाली/ प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा को अछूत की तरह व्यवहृत किया गया । भगवान महावीर की भाषा - केवल अर्धमागधी नहीं थी। उनकी दिव्यध्वनि बीज पद रूप सर्वभाषामयी थी अर्थात् सर्वमागधी भाषा थी। प्राकृत भाषा पर केवल जैनों की बपौती नहीं है। हाँ ! यह जैनों की पहचान - भाषा हो सकती है। प्राकृत भाषा- अखण्ड भारत का प्रतिनिधित्व करती है । वस्तुत : महावीर ने वह सब कहा जो मनुष्य के काम का था मनुष्य के कल्याण का था। उपसाला यूनिवर्सिटी स्वीडन के प्रो. हैन्ज बैसलन ने भी हिन्दी में संक्षिप्त भाषण दिया और कहा मनुष्य चाहे तो हर भाषा को सीख सकता है। आप स्वीडन में संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के प्रोफेसर हैं। उन्होंने कहा कि भाषा विशेष से हमारी सोच में परिवर्तन होता है। कार्यक्रम के संचालक विद्वान डॉ. जयकुमार जैन , संपादक 'अनेकान्त' एवं अध्यक्ष - अ.भा. विद्वत् परिषद ने टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रो. वैसलर साहब की हिन्दी सुनकर हम सभी को बड़ी प्रसन्नता और प्रेरणा मिली इतनी अच्छी हिन्दी बोलकर आपने संसद का मन मोह लिया। प्रो बैसलर ने कहा कि मुझे अभी जैन दर्शन का अध्ययन ज्यादा नहीं है परन्तु दो वर्ष के भीतर प्राकृत का प्रवेश पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय में स्थापित करने का संकल्प करता हूँ | संस्थान के महामंत्री जी ने आपको एवं डॉ. अफरीदी को वैरिस्टर चम्पतराय जी की पुस्तक 'Key of Knowledge' एवं Jain Bibliography (छोटेलाल जैन) की प्रतिया, भेंट स्वरूप प्रदान की। मुख्य अतिथि के रूप में दि. जैन. कालेज बड़ौत में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. श्रेयांस कुमार जैन ने 'वीर शासन जयंती' की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए कहा कि आज से भगवान महावीर का तीर्थकाल प्रवर्तित हुआ इसके पूर्व 250 वर्ष तक भ. पार्श्वनाथ का शासनकाल रहा। उन्होंने कहा कि अर्हन्त भगवान की भाषा 'बीजपद' रूप होती है जिसमें अनन्त अर्थ गर्भित होते हैं । गणधर- उन बीज पदों की व्याख्या करके ग्रंथों का प्रणयन करता है। मुख्य अतिथि ने कहा कि हमें आगम शास्त्र के अनुसार ही अपना मत बनाकर व्याख्यान करना चाहिए। ऐसा न करके कुछ लोग अपने मत के अनुसार शास्त्रों को टटोलकर आधी अधूरी बात उसमें से निकालकर प्रस्तुत करते रहे हैं। शोध- उपसमिति के सदस्य श्री रूपचंद कटारिया ने भी संक्षेप में भाषण द्वारा डॉ. श्रेयांस जी के व्याख्यान की अनुमोदना की। व्याख्यानमाला का समापन करते हुए समणी प्रो. चारित्र प्रज्ञा जी ने अपना मार्मिक व्याख्यान देते हुए कहा कि हमें अपने मनभेद और मतभेद दोनों को, समन्वय बिन्दुओं पर स्वीकृति देते हुए, दूर करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों साथ साथ नहीं चलते, तब तक सम्यक्चारित्र पैदा नहीं होता। आज विश्व को यह सदन पूरी तरह आश्वस्त करता है कि जैन धर्म एक स्वतंत्र धर्म है न तो यह हिन्दू धर्म की शाखा है और न ही बौद्ध धर्म का अपर रूप है। उन्होंने आगे बोलते हुए कहा कि जहाँ नय, निक्षेप है वहां अनेकान्त है 88 अर्हत् वचन, 23 (4), 2011
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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