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________________ सतीश चन्द विद्याभूषण आदि इतिहासज्ञ इन्हें प्रथम शताब्दी के अन्त का मानते हैं । सुखलाल संघवी ने अपने विद्वत्तापूर्ण तर्कों के आधार पर उन्हें प्रथम से चौथी शताब्दी के मध्य का माना है | कैलाश चन्द्र सिद्धान्ताचार्य, नेमिचन्द्र शास्त्री आदि विद्वानों ने इन्हें छठी शताब्दी ई. का माना हैं। इन दोनों विद्वानों का इस कृति को इतना अधिक परिवर्ती मानने का आधार छठी शताब्दी के प्रारम्भ की कृति एवं तत्वार्थ सूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध कतिपय सूत्रों का इस ग्रंथ के सूत्रों की व्याख्याओं में साम्य हैं।अर्थ विकास की दृष्टि से भी इन विद्वानों के मतानुसार यह सर्वार्थसिद्धि से परिवर्ती रचना है। वस्तुत : यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है। यह ग्रंथ गणित इतिहासज्ञ डॉ. हीरालाल रसिकलाल कापड़िया द्वारा विस्तृत प्रस्तावना एवं अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुका है। तत्वार्थराजवार्तिक :- प्रसिद्ध जैन दार्शनिक एवं अपने काल के बहुश्रुत जैनाचार्य भट्ट अकलंक ( सातवी आठवीं शताब्दी ) की यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है। इसकी रचना में सर्वाथसिद्धि का खुलकर प्रयोग हुआ है । पाठान्तर से कहीं कहीं भाषा का भी उल्लेख मिलता है । यद्यपि इस कृति का गणितीय दृष्टि से अब तक यथेष्ट मूल्यांकन नहीं हुआ है तथापि हमारा विश्वास है कि यह कृति गणितीय दृष्टि से भी पर्याप्त महत्व की है। यह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो भागों में प्रकाशित हो चुकी है। तत्वार्थश्लोकवार्तिक :- दसवी शताब्दी के महान दार्शनिक आचार्य विद्यानन्द द्वारा प्रणीत यह कृति गणितीय दृष्टि से अधिक महत्व की नहीं है । तथापि पठनीय है। इसकी रचना भी तत्वार्थराजवार्तिक के आधार पर की गई है। यह कृति भी प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त भी कई प्राचीन विद्वानों ने इस पर टीकाएँ लिखी है। आधुनिक युग में प्रो. घासीराम जैन (मेरठ ) ने इसके पंचम अध्याय पर वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर विवेचना की है। उनकी यह व्याख्या तत्वार्थ के सूत्रों में निहित वैज्ञानिक चिंतन की परिपक्वता को व्यक्त करती है | Cosmology - Old & New' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित इस कृति में प्राचीन एवं आर्वाचीन वैज्ञानिक मान्यताओं का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जो लेखक के प्रगाढ़ ज्ञान एवं मौलिक चिंतन को अभिव्यंजित करता है। तत्वार्थ सूत्र मूल में भी वलय, वृत्त, विष्कम्भ, क्षेत्रफल आदि ठोस ज्यामिति एवं ज्यामिति के पदों की चर्चा सूत्र रूप में की गई है। इसके टीका ग्रंथों में इनकी विस्तार पूर्वक चर्चा है। हम यहाँ मुख्यत: तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य एवं तत्वार्थराजवार्तिक के गणित की चर्चा करेंगे। तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में निहित गणितीय सिद्धान्त : तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में गणित की छ: विभिन्न मापों का वर्णन आया है।" 1. मान 2. उन्मान 3. अवमान 4. गणितमान 5. प्रतिमान 6. तत्प्रतिमान रेखा आदि के संकेत से जो मान निर्धारित किया जाता है उसे मान कहते हैं । जैसे पानी भरने वाले कलशों की गिनती लकीर खींच कर की जाती है। तराजू एवं काँटे द्वारा वस्तु का जो प्रमाण ज्ञात किया जाता है उसे उन्मान कहते है। जैसे किलो, सेर आदि। ___ हाथ की पसों से जो मान ज्ञात किया जाता है उसे अवमान कहते हैं। इसके लिए ऐसा भी लिखा है कि जिस प्रमाण का बाँस आदि से मापा जाये उसे भी अवमान कहते है। 38 अर्हत् वचन, 23 (4), 2011
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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