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________________ वर्ष-23, अंक-4, अक्टूबर-दिसम्बर - 2011, 27-36 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर शब्द - प्रभात कुमार जैन* सारांश प्रस्तुत आलेख में जैन दर्शनानुसार शब्द की परिभाषा, स्वरूप, शब्द के भेद, उत्पत्ति के कारण, प्रकार आदि की विस्तार पूर्वक चर्चा करने के उपरान्त विज्ञान एवं वैयाकरणों की दृष्टि से शब्द के स्वरूप की चर्चा की गयीहै। तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट जैन दर्शनानुसार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड 6 द्रव्यों- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल से निर्मित है। इनकी संख्या निश्चित 6 ही हैं, न कम और न अधिक। "धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीव पोग्गलाणं च। जावत्तावल्लोगो आयासमदो परमणंतं ।।5।।' इन 6 द्रव्यों में मात्र एक पुद्गल मूर्तिक है तथा स्पर्श, रस , गन्ध व वर्णयुक्त है । धर्म, अधर्म, आकाश व काल-ये चार द्रव्य पुद्गल की भाँति अचेतन हैं, किन्तु अमूर्तिक हैं। केवल जीव अमूर्तिक व चेतन है। संसारी अवस्था में यह जीव इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से सामान्यत: 5 भेदों में वर्गीकृत किया गया है जिनका निश्चित क्रम स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण है अर्थात - यदि कोई एकेन्द्रिय जीव है तब मात्र स्पर्शनेन्द्रिय ही है। द्वीन्द्रिय जीव में स्पर्शन व रसनेन्द्रियाँ ही है। इसी क्रम से एक - एक इन्द्रिय का सद्भाव होते हुए जीवों का विकास क्रम चलता है। यह जीव के विकास की पराकाष्ठा है। किन्तु 'समनस्कामनस्वस्का:' के आधार पर पंचेन्द्रिय जीवों के पुन : दो भेद 'संज्ञी' व 'असंज्ञी' हो जाते हैं । जैन जीव विज्ञान के अनुसार जीवों का यह वर्गीकरण अकाट्य एवं सनातन है। आधुनिक प्राणि विज्ञान व वनस्पति विज्ञान (Zoology, Botany) में किये जाने वाले वर्गीकरण में कुछ अपवाद, वर्गीकरण के आधार पर शंका उत्पन्न कर देते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में अब मुख्य तथ्य है, उनमें उपस्थित इन्द्रियों के विषय । प्रत्येक इन्द्रिय का विषय अपना विशिष्ट व अन्यों से भिन्न होता है। इन विषयों में एक प्रमुख विषय है - भाषा। जैन दर्शन व विज्ञानानुसार भाषा का उद्गम द्वीन्द्रिय जीवों से प्रारंभ होता है अर्थात् एकेन्द्रिय जाति के पाँचों वायुकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक व वनस्पतिकायिक जीवों में किसी भी प्रकार की भाषा नहीं पायी जाती। भाषा के लिये प्रमुख आवश्यकता है - रसनेन्द्रिय का सद्भाव अर्थात् रसना आते ही भाषा का निर्माण व उपयोग होने लगता है जो संज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट अवस्था तक है। सार्थकात्मक भाषा उत्पन्न करने के लिये मुख्यत: पाँच उपांगों की आवश्यकता होती है - कंठ, तालू, जिह्वा, दन्तावली एवं ओष्ठ । यह आवश्यक नहीं कि एक समय में अर्थात् सभी ध्वनियों या वर्गों के लिये पाँचों ही उपाङ्ग आवश्यक हो किन्तु यह आवश्यक है कि सार्थकता से भावों की पूर्ण व स्थूल अभिव्यक्ति शब्द हैं । यहाँ प्रश्न उठता है कि भाषा क्या है ? धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम के वग्गणाखण्ड में पुद्गल के भिन्न-भिन्न स्वभावों व उपयोग के आधार पर उसके 23 खण्ड किये हैं, जिन्हें 23 वर्गणा कहा जाता है। इन * KH 93, FF-2, शांति निकेतन, कविनगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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