SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनोविज्ञान नहीं होगा। अपनी संपूर्णता को उद्घाटित करने के लिए हमें किसी दूसरी ही दिशा में देखना होगा। इस खोज में जब हम अपनी नजरे उठाते है तो हम यह पाते है कि हमारे शास्त्र एवं पुरानी बुद्धिमत्ता हमारे सहायक हो सकते है। व्यवहार मनोविज्ञान जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके है का मानना है कि जैसा Stimulus होगा Response वैसा मिलेगा। इसे कुछ लोग S-R मनोविज्ञान भी कहते है। सतही रूप में देखने पर यह बात ठीक भी लगती है और मन को भाती भी है, परन्तु थोड़ा इसकी गहराई में उतरें तो पाते है Stimulus हर समय अपने से परे होता है, बाहर होता है। उस पर नियंत्रण प्रायः अपना नहीं होता है। Response तो खुद करना होता है। अब जो stimulus को नियंत्रित कर रहे है वे हमारा व्यवहार नियंत्रित कर लेगें। आप समझने के लिए कह सकते है कि जब आप हमें गाली देंगे तो हम दुखी हो जाएगें और प्रशंसा करेगें तो प्रसन्न हो जायेगे । अतः आपकी भूमिका मदारी की और हमारी बंदर की हुई, जो मदारी के इशारे पर कार्य करता है। हम कम से कम अपने को इस मनोविज्ञान से नियंत्रित नहीं करवाना चाहेंगे। हम चाहेंगे कि अपने व्यवहार को हम खुद नियंत्रित करें। अपने शान्त मन द्वारा अपनी बुद्धि और विवेक द्वारा परिस्थिति कितनी भी जटिल क्यों न हो अपनी प्रतिक्रिया हम खुद निर्धारित करेगें हम स्वतंत्र रहेगें। यह संभव भी है। यह स्थिति एक अच्छी स्थिति है जिसमें हमारा खुद पर नियंत्रण रहता है। हम मनोविज्ञान का पक्षधर होना स्वीकार करेंगे जो इस स्थिति को व्यवहारिक बनाने का उपाय बताता हो, न कि हमें असहाय स्थिति में छोड़ देता हो। जब हम पश्चिम के मनोवैज्ञानिक निष्कर्ष पर पहुॅचने की पद्धतियों की चर्चा कर रहे थे, तो हमने रेखांकित किया था कि इन्द्रियों एवं सांख्यिकीय विधियों की सीमाओं के कारण और विश्लेषण की सीमाओं के कारण हमारे परिणाम पूर्ण नहीं है। जो भी निष्कर्ष प्रयोग और परीक्षण के द्वारा निकाले जाते है, उन्हें हमारा मन भी प्रभावित करता है । अतः जो निष्कर्ष मन एवं इन्द्रियों के संयोग तथा सहयोग द्वारा निकाले जाते हैं उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। , - भारतीय परंपरा में प्रमाणों को दो कोटियों में रखा गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण और अप्रत्यक्ष प्रमाण । जो प्रमाण इन्द्रियों और मन के संयोग से प्राप्त होता है उन्हें शास्त्र प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, उन्हें अविश्वसनीय मानते हैं इसके विपरीत पश्चिम का मनोविज्ञान और विज्ञान उन्हें ही विश्वसनीय मानता है। कहा जाता है कि Seeing is believing जो देखा उसे सच माना । शास्त्र कहता है कि जो देखा वह भ्रम हो सकता है, असत्य हो सकता है, मन का खेल हो सकता है। शास्त्र उस प्रमाण को विश्वसनीय मानता है जो इन्द्रियों से बाह्य होकर प्राप्त किए जाते हैं प्रमाण की श्रेणी में आने वाले अन्य प्रमाणों की बात न करके अब आप्त वाक्य प्रमाण पर पहुँचता हूँ जिसका मतलब है कि महापुरूष का कथन प्रमाण है, उसका वचन प्रमाण है, उसका दर्शन प्रमाण है क्यों कि जो कुछ वह व्यक्त करेगा, वह इन्द्रियों और मन से बाह्य होकर प्राप्त किया गया ज्ञान होगा । यहाँ अभिव्यक्ति के रूप में एक परेशानी और पैदा होती है। व्यक्त करने के लिए हम भाषा का प्रयोग करते है जिसकी अपनी कुछ सीमाएँ होती हैं। इसलिए जो पहुॅचा हुआ चिंतक है, मुनि है, वह अपने को भाषा के माध्यम से व्यक्त नहीं करता है। वह किसी और स्तर पर संप्रेषण करता है । पश्चिम के मनोविज्ञान के संबंध में हम एक बात और कहना चाहेंगे कि इसकी आत्मा प्रयोगात्मक (एक्सपेरिमेंटल) होने में बसती है। पर यह प्रयोग किस पर किया जाता है ? यह प्रयोग अपने पर नही किसी दूसरे पर किया जाता है। किसी दूसरे के व्यवहार को समझने की कोशिश की जाती है, उसको बदलने की कोशिश की जाती है जबकि भारतीय चिंतन धारा विशेष रूप से स्व को समझने एवं I बदलने पर बल देती है। पश्चिम का फोकस दूसरे पर है और पूर्व का फोकस अपने आप पर है। अर्हत् वचन, 23 (4), 2011 12
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy