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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 23, अंक - 4, अक्टूबर-दिसम्बर - 2011,9-14 मनोविज्ञान में समसामयिक प्रवृत्तियों एवं आत्म विकास की जैन पद्धत्तियाँ - प्रभुनारायण मिश्र एवं पूजा जैन** साराश भारतीय परम्परा में मनोविज्ञान दर्शन का ही एक भाग था। दर्शन शास्त्र के अंतर्गत ही चेतना के विकास की विविध रीतियों की चर्चा होती थी। शनैः शनैः इस विषय की विविध प्रायोगिक रीतियों को विकसित कर पश्चिम के चिन्तकों ने इसे एक स्वतंत्र विषय की मान्यता दी। गत शताब्दियों में इस विषय के आधारभूत सिद्धांतों में अनेक बार परिवर्तन हुए एवं वर्तमान में भी यह विषय निरन्तर परिवर्तन शील होकर विकसित हो रहा है। व्यावहारिक मनोविज्ञान के सिद्धांत जानवरों, पागल मनुष्यों पर किये गये परीक्षणों अथवा एक विशिष्ट विचारधारा के व्यक्ति द्वारा संकलित आकड़ों एवं सांख्यिकीय विश्लेषणों पर आधारित होते हैं जो विश्लेषण विधियों को बदलने पर बदल जाते हैं । जबकि भारतीय मनीषा द्वारा अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर स्व पर किये गये परीक्षणों के निष्कर्षों को जैन, बौद्ध ग्रंथों एवं गीता में संकलित किया आत्मिक विकास की तीन रीतियां जैन दर्शन में वर्णित है। 1. सामायिक 2. कायोत्सर्ग 3. ध्यान इनका ही विवेचन प्रस्तुत आलेख में किया गया है। इस आलेख में जिन प्रश्नों के हम उत्तर खोजना चाहेंगे, वे हैं, मनोविज्ञान की मानव जीनव में उपयोगिता क्या है? उसका दर्शनशास्त्र से क्या संबंध है? भारत का मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र किस तरह पश्चिम के मनोविज्ञान से भिन्न हो जाता है? जहाँ तक भारतीय परंपरा का प्रश्न है हमारे यहाँ मनोविज्ञान जैसे स्वतंत्र विषय का अस्तित्व नहीं था, मूल विषय दर्शन था, जिसका प्रयोजन था मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य को स्पष्ट कर देना। उद्देश्य स्पष्ट हो जाने मात्र से उसकी प्राप्ति नहीं हो जाती है। उसके लिए कोई चरण दर चरण प्रक्रिया होनी चाहिए। उस प्रक्रिया का नाम योग है, साधना है। इस तरह भारतीय परंपरा में दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान को पृथक्-पृथक् नहीं देखा गया है, एक साथ पाए जाते थे। इस देश में भी जब मनोविज्ञान की पढाई सर्वप्रथम कलकत्ता विश्वविद्यालय में शुरू की गयी तो मनोविज्ञान का कोई पृथक् विभाग नहीं था, इसे दर्शनशास्त्र के विभाग के अंतर्गत स्थान दिया गया था। धीरे-धीरे बहुत आयामों वाले एक स्वतंत्र विषय के रूप में मनोविज्ञान विकसित होता गया। चूँकि इस देश की दार्शनिक परंपरा और उससे जुडी हुई यौगिक परंपरा हजारों साल पुरानी है इसलिए उसके इतिहास को रेखांकित करना संभव नहीं है। दार्शनिकता हर भारतीय के जीवन में इस प्रकार रच बस गई है कि लगता ही नहीं कि यह उसके जीवन का अभिन्न अंग न हो। जहाँ तक पश्चिम के मनोविज्ञान का प्रश्न है, बहुत खींचतान के बाद इसके इतिहास को प्लेटो (427-347 बी.सी.) से आरंभ माना जा सकता है, जिसने व्यक्तिगत भिन्नताएँ,उत्प्रेरण, स्मृति, * प्राध्यापक-प्रबन्ध विज्ञान,P-2 देवी अहिल्या वि. वि. आवासीय परिसर,खंडवा रोड, इन्दौर - 452001 ** व्याख्याता-अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक अध्ययन संस्थान, देवी अहिल्या वि.वि., इन्दौर - 452001
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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