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________________ Ák; füpůkpfkdk xik en vkf; Ekv"a dk Ák; füpŪk Òh equ; "a ds I eku crk; k g& Ik/kuka ; }njl"V eDek; kik.kL; pA fnuLFkkuf«kdkYkhu Ák; füpūka Ief;r4114AA16 अर्थात् जैसा प्रायश्चित्त साधुओं के लिए कहा है वैसा ही आर्यिकाओं के लिए भी कहा गया है। विशेष इतना है कि दिन प्रतिमा, त्रिकालयोग, पर्यायछेद, मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित्त आर्यिकाओं के लिए नहीं है।। इससे आधा क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का एवं उससे आधा प्रायश्चित्त ब्रह्मचारियों को दिया जाता है। इसी प्रकार प्रवचनसार, जीवंधर चम्पू पद्मपुराण आदि ग्रंथों में आर्यिकाओं को समणी (श्रमणी) शब्द से सम्बोधित किया है। इनकी वंदना विधि एवं आहारकाल में नवधाभक्ति जैसी वर्तमानकाल में (चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर परम्परानुसार) चल रही है वह आगमानुकूल है। gk Ál xi kük 1 kafe I kf/o; "ad" dh tkus okykh oUnuk fof/k ij Oh vkxe Aek.k ALrr gs जैनेश्वरी दीक्षा को धारण करने वाले मोक्ष की ओर उन्मुख महापुरुष त्रिकाल वंदनीय होते हैं, यह आगम एवं व्यवहार दोनों प्रकार से स्थापित सत्य है। परस्पर साधु-साधु एवं श्रावकों के द्वारा भी दिगम्बर जैन मुनि/आर्यिकाओं की वंदना का विधान जैनागम में निर्दिष्ट है, जिसके अनुसार मुनि महाराज को नमोस्तु, आर्यिका माता को वंदामि, ऐलक-क्षुल्लक-क्षुल्लिका जी को इच्छामि कहने की स्वस्थ परम्परा आगम के परिप्रेक्ष्य में आज तक चली आ रही है। मूलाचार ग्रंथ-पूर्वार्द्ध (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) के पृष्ठ 439 पर गाथा 599 में जो विशेष कथन किया गया है, वह दृष्टव्य हैसंयतमप्येवं स्थितमेतेषु स्थानेषु च न वंदेतेत्याह okf[k]ki j kgờka rq i eka ek dnkb oanTt"A vkgkjap djr ..khgkja ok tfn djinAA599AA" व्याक्षिप्तं ध्यानादिनाकुलचित्तं परावृत्तं पराङ्मुखं पृष्ठदेशतः स्थितं प्रमत्तं निद्राविकथादिरतं मा कदाचिद् बंदिज्ज नो वंदेत संयतमिति संबंधस्तथाऽहारं च कुर्वन्तं भोजनक्रियां कुर्वाणं नीहारं वा मूत्रपुरीषादिकं यदि करोति तदाऽपि नो कुर्वीत वंदनां साधुरिति ।।599 ।। अर्थात् जो व्याकुलचित्त हैं, पीठ फेरकर बैठे हुए हैं, या प्रमाद सहित हैं उन मुनियों की उस समय वंदना न करे और यदि आहार कर रहे हैं अथवा नीहार कर रहे हैं उस समय भी वंदना न करे।।599 ।। केन विधानेन स्थितो वंद्यत इत्याशंकायामाह vkl. ks vkl .KRFka p mol r mofí na v.kq fo..k; eskkoh fdfn; Eea i mat n4A600AA आसने विविक्तभूप्रदेशे आसनस्थं पर्यकादिना व्यवस्थितं अथवा आसने आसनस्थमव्याक्षिप्तमपराङ्मुखमुपशांतं स्वस्थचित्तं उपस्थितं वंदनां कुर्वीत इति स्थित अनुविज्ञाप्य वंदना करोमीति संबोध्य मेधावी प्राज्ञोऽनेन विधानेन कृतिकर्म प्रारभेत प्रयुंजीत विदधीतेत्यर्थः । 1600 ।। यहाँ गाथा में जो कृतिकर्म शब्द है उसका अर्थ जानना है _n.knarqt/ktrna ckjl kolken pA pnfLIjafrlpap fdfn; tea imatniA603AA Vay अर्हत् वचन, 23 (3), 2011
SR No.526590
Book TitleArhat Vachan 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size32 MB
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