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________________ इसी प्रकार मूलाचार प्रदीप में श्री सकलकीर्ति आचार्य ने आर्यिकाओं की समाचार नीति का वर्णन किया है-12 v; eo I ekpkj 1 ; Fkk[; krLri floukeA rFlo la rhuka p] ; Fkk; "X; a fop{k.ISAA2290AA vg"&jke": f[kyk* epR; $ foks" fgrdki d'A o{kelkkfn&l | kx&jfgr“ ftuòkf"kr%AA2291AA अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य सदृश आपने भी आर्यिकाओं को “संयतिका शब्द से संबोधित करके उन्हें मुनियों के सदृश ही दिन-रात समाचार विधि अपनाने का निर्देश किया है। इन आर्यिकाओं को आगमानुसार सिद्धांतग्रंथ भी पढ़ने और लिखने का पूर्ण अधिकार है यह बात श्री कुन्दकुन्ददेव के शब्दों में सप्रमाण देखिए ra if<nel T>k; s.k dli fn fojn bfRFkOXxLI A , Uk" v..k" xUFk" dli fn if<nel T>k; AA97AA13 टीकांश-तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य संयतसमूहस्य, स्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य च। अर्थ-अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिकाओं को उपर्युक्त सूत्रग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए किन्तु इनसे भिन्न ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकते हैं। हरिवंशपुराण में तो आर्यिका सुलोचना को ग्यारह अंग तक श्रुतज्ञान भी प्राप्त करने का प्रमाण दिया ni a kj LoÒkokk] i Ruhfò% fl rEcj kA ckahap I njha fJRok] Áookt 1 tk pukAA51AA }kn'kka/kj" tkr%f{kha egkfloj" x.kha din'kkaðTtkrk I kf; Elkfi lok pukAA52AA14 अर्थ-संसार के दुष्ट स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के सफेद वस्त्र धारण कर लिए और ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास जाकर दीक्षा ले ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गई। 151-52 ।। आचार्य कुन्दकुन्दरचित बोधपाहुड़ की गाथा नं. 22 की टीका में भी लिखा है कि ... kk. ka itjILI gofn] Ykgfn I[jl fo fo.k; I takA .kk.ks k Ykgfn YKD[ka YkD [ka" e D[keXxLI AA22AA15 टीकांश-"अपि शब्दात् ब्राह्मी-सुन्दरी, राजमती एवं चन्दनादिवत एकादशांगानि लभन्ते। मृगलोचनापि स्त्रीलिंगं छित्वा स्वर्गसुखं भुक्त्वा राजकुलादिषूत्पन्ना मोक्षं तृतीयेऽपि भवे लभन्ते।" अर्थात् “यहाँ गाथा में 'सुपुरिसोवि-सत्पुरुषोऽपि' के साथ जो अपि शब्द दिया है उससे यह सूचित होता है कि ब्राह्मी-सुन्दरी, राजीमती (राजुल) तथा चन्दना आदि के समान स्त्रियाँ भी ग्यारह अंग तक श्रुतज्ञान प्राप्त करती हैं और वे भी स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गसुख का उपभोग कर राजकुल आदि में उत्पन्न हो तृतीय भव में मोक्ष को प्राप्त होती हैं।” ये तो कतिपय प्रमाण यहाँ दिये गये हैं जिनसे मुनि और आर्यिका की सारी चर्या एक समान मानी गई है। इसीलिए उनका प्रतिक्रमण एक ही है, उनकी दीक्षाविधि एक सदृश है और उनका प्रायश्चित्त भी एक समान है। अर्हत् वचन, 23 (3), 2011
SR No.526590
Book TitleArhat Vachan 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size32 MB
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