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________________ आचार्य श्री विशुद्धसागरजी की प्रस्तुत कृति तत्व देशना का आधार उक्त तत्वसार ग्रंथ है। तत्वसार की 74वीं गाथा निम्नवत् है। - सोउण तच्चसारं रइयं मुणिणाह देवसे से ण । जो सदिददि भावइ तो पावई सासयं सोक्खं ।। जो सम्यग्दृष्टि, मुनिनाथ देवसेन के द्वारा रचित इस तत्वसार को सुनकर उसकी भावना करेगा वह शाश्वत सुख को पाएगा। इससे स्पष्ट है कि तत्वसार आचार्य देवसेन की अध्यात्म विषयक कृति है। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री (तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य पराम्परा, भाग-2) ने विस्तृत उहा-पोह के उपरान्त आपका सरस्वती आराधना काल 933-953 ई. निर्धारित किया है एवं आपको आचार्य विमलसेन गणि का शिष्य बताया है। अन्य कृतियों से आपका नाम देवसेन गणि भी प्रतीत होता है। भाषा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत एवं अपभंश तीनों भाषाओं में विपुल परिमाण में साहित्य का सृजन किया। प्राकृत एवं अपभ्रंश तत्कालीन जन भाषायें रहीं एवं संस्कृत अभिजात्य वर्ग की भाषा। अत: शास्त्रार्थ एवं विद्वत् समुदाय में अपने मत को समीचीन रूप से प्रस्तुत करने हेतु संस्कृत में साहित्य सृजन जरूरी था तथा जन-जन तक अपना मंतव्य प्रेषित करने हेतु प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं में भी। जहाँ जैन परम्परा के भूल ग्रंथ महावीर कालीन जनभाषा प्राकृत में है वहीं उत्तरवर्ती काल में राजस्थान के विद्वानों ने तत्कालीन जनभाषा ढुंढारी में भी साहित्य का सृजन किया। 19वीं शताब्दी में परिष्कृत हिन्दी के प्रचार से पूजा एवं भक्ति साहित्य तो परिष्कृत हिन्दी में लिखा गया किन्तु आगम ग्रंथों की ढुं ढारी भाषा की टीकाएं/व्याख्यायें ही चलती रही। 20वीं शताब्दी में जैन साहित्य में क्रांति आई जब अनेक ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय -मुम्बई, माणिकचन्द ग्रंथमाला -मुम्बई, जैन संस्कृति संरक्षक संघ-- शोलापुर एवं भारतीय ज्ञानपीठ-दिल्ली के माध्यम से प्रकाश में आये। अन्य अनेक प्रकाशन संस्थाओं का योगदान भी सराहनीय रहा। इन कृतियों के प्रकाश में आने से हिन्दी, श्रावक भी विषय को ठीक से हृदयंगम कर सके । आज यदि भारत में 1000 के लगभग पिच्छीधारी दिगम्बर मुनि, आर्यिका, ऐलक,क्षुल्लक, क्षुल्लिका, विहार कर रहे हैं, स्वाध्याय एवं ज्ञानार्जन के माध्यम से अपने वैराग्य को वृद्धिंगत कर रहे हैं तो इसमें प्राचीन आचार्य प्रणीत ग्रंथों के उपलब्ध हिन्दी अनुवादों की भी महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री विरागसागरजी महाराज के सुशिष्य युवा एवं प्रभावक संत आचार्य श्री विशुद्धसागरजी ने प्राकृत भाषा की 74 गाथाओं में निबद्ध आचार्य देवसेन (गणि)(10वीं श.ई.) की आध्यात्मिक कृति तत्वसार पर विदिशा (म.प्र.) में सम्पन्न ग्रीष्मकालीन वाचना में 49 सारगर्भित प्रवचन दिये। जिसमें गूढ रहस्यों को अनेक इतर ग्रंथों के उद्धरणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया। प्रस्तुत कृति इन प्रवचनों का ही संकलन है। कृति के प्रारंभ में ही आप रेखांकित करते हैं कि - एक गूढ़वादी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह बहुत बड़ा विद्वान हो और न वर्षों तक व्याकरण तथा न्याय में सिर खपाकर वह सुयोग्य बनने का प्रयत्न करता है किन्तु मानव समाज को देख आत्म साक्षात्कार का अनुभव ही उसे उपदेश देने के लिए प्रेरित करता है और व्याकरण आदि के नियमों पर विशेष विचार किये बिना जनता के सामने वह अपने अनुभव रखता है अत: उच्चकोटि की रचनाओं में 84 अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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