SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पल्लव व कदम्ब वंश दूसरी शती के प्रारम्भ में उरैयूर (वर्तमान तिरूचिरापल्ली) का नरेश कीलिकवर्मन चोल था, उसका छोटा पुत्र शांतिवर्मन था। कुमारावस्था में ही बलाकपिच्छ नामक जैनाचार्य से दीक्षा लेकर वह जैन मुनि हो गया और समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुआ । समन्तभद्र का, प्रारंभिक मुनि जीवन कांची में बीता, कांची के महारथी स्कंदनाग की कन्या चटुपल्लव से विवाही थी अतः नागराज की मृत्यु के बाद पल्लव के पुत्र विरूकुरुच ने कांची में पल्लव वंश की स्थापना की । बनवास देश की करहाटक नगरी में सात वाहनों ने एक अन्य सामन्त ने कदम्ब वंश की नींव डाली थी। प्रथम कदम्ब नरेश का उत्तराधिकारी 150 ई. के लगभग शिवस्कन्द श्री / आचार्य समन्तभद्र से सम्बन्धित जैन अनुश्रुति का राजा शिवकोटि यही व्यक्ति लगता है। भस्मक रोग हो जाने पर इसी राजा के शिवालय में आचार्य ने रोग की उपशांति की थी और स्वयंभू स्तोत्र की रचना द्वारा अपनी भक्ति का चमत्कार दिखाया था । फलस्वरूप राजा शिवकोटि और उसका भाई शिवायन आचार्य के शिष्य हुए और जैन मुनि हो गये। मुनि शिवकोटि ने ही तत्वार्थसूत्र पर रत्नमाला नामक प्रथम टीका लिखी थी। नरेश मयूरवर्मन के समय से कदम्ब वंश का उत्कर्ष हुआ। इस काल में जैन संघ में स्वामी समन्तभद्र (120-185 ई.) महानवादी, धर्मप्रचारक तथा ग्रंथ प्रणेता थे । पल्लव राजे एवं करहाटक के प्रारंभिक कदम्ब राजे उनके भक्त थे। बौद्धाचार्य नागार्जुन उनके समकालीन एवं प्रतिस्पर्धी थे, अन्य धर्मो के विद्वानों के साथ इन्होंने सैकड़ों सफल शास्त्रार्थ किये थे। इन्हीं के समकालीन मथुरा संघ के प्रसिद्ध आचार्य नागहस्ति और उनके शिष्य यतिवृषभाचार्य थे जिन्होंने कसायपाहुड ग्रंथ पर चूर्णिसूत्र लिखे और 176 ई. में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ की रचना की । इन्हीं के जीवन में 156 ई. में महावीर के शिष्य परम्परा का अंत हुआ जो परम्परागत साक्षात् ज्ञान की मौखिक द्वार से संरक्षक थी। आचार्य समन्तभद्र के ही एक शिष्य आचार्य सिंहनंदि को सन् 188 ई. में दद्दिग और माधव नामक भ्रातृद्वय के हाथों कर्नाटक के प्रसिद्ध गंगवंश और गंगवादि राज्य की स्थापना का श्रेय है। इस प्रकर दूसरी शताब्दी के अंत तक दक्षिण भारत में पाण्ड्य, चोल, चेर नामक प्राचीन छोटे-छोटे तीन तमिल राज्यों के अतिरिक्त पूर्वी तट पर तोण्डेय मण्डल में कांची का पल्लव, बनवास देश में करहाट, वैजयंती का कदम्बराज और कर्नाटक में गंगवादि का गंगराज्य ये तीन नये वंश स्थापित हो गये थे। 18 | इनके अतिरिक्त दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे शक्तिशाली किन्तु अल्पस्थायी राज्य स्थापित हो गये थे जैसे पश्चिमी भाग में शकक्षत्रप शक्तिशाली थे, आन्ध्र देश में इक्ष्वाकुओं का राज्य था। नासिक और खान देश पर लगभग 70 वर्ष आमीरों का राज्य रहा। तदन्तर वहां प्राचीन रट्टिक एवं भोजों के वंशजों- राष्ट्रिकों का आधिपत्य हुआ और 3री से 6ठी शती तक वे राज्य करते रहें 5वीं शती में चालुक्यों के उदय से राष्ट्रीक गौण हुए और फिर 8वीं शती में राष्ट्रकूटों के रूप में उनका उत्थान हुआ। अब आगे तीसरी से 10वीं शती पर्यन्त दक्षिण भारत का इतिहास कदम्ब, पल्लव, गंग, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों का ही इतिहास रहा। 19 पल्लव वंश का प्रथम राजा विरूकुरुच था, उसके बाद स्कंदवर्मन हुआ, यह धर्ममहाधिराज भी कहलाता था। पल्लव राजाओं पर स्वामी समन्तभद्र और उनके धर्म का प्रभाव रहा है। प्रारंभिक पल्लव राजाओं के विशेष कर शिवस्कंदवर्मन स्वयं आगमों के टीकाकार जैन गुरु बप्पदेव का शिष्य था। इसके बाद सिंहवर्मन, बुद्धवर्मन कुमारविष्णु ( 325-50 ई.) विष्णुगोप सिंहवर्मन द्वितीय राजा हुए, सिंहवर्मन के राज्य में ( 458 ई.) में पाटलिक ग्राम के जिनालय में जैनाचार्य सर्वनन्दी ने लोकविभाग प्राकृत ग्रंथ पूर्ण किया था। यह जैनी था। इसके उपरान्त दो-तीन राजा और हुए। सन् (550 ई.) के लगभग कुमार अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy