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________________ यह कुलगुरु अजितसेनाचार्य तथा विद्यागुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के परम भक्त थे । अपने सदाचारी धार्मिक जीवन के कारण उन्हें 'सम्यकत्वरत्नाकर, शोभाचरण, सत्ययुधिष्ठर, देवराज, गुणकाव, गुणरत्नभूषण जैसी उपाधियाँ भी मिली थी । ज्ञानोपार्जन में भी चामुण्डराय को विशेष रुचि थी। कन्नड़, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं के विद्वान थे। उनके द्वारा रचित पुस्तकों के नाम हैं - 1. वीर मार्तण्डी 2. चरित्रसार 3. त्रिशष्ठी लक्षणपुराण । यह तो हुई गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबली के निर्माता चामुण्डराय की पृष्ठभूमि इसके अतिरिक्त और भी दक्षिण भारत में अनेक ऐसे राजवंश हुए हैं जिन्होंने जैन संस्कृति एवं जैन धर्म के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है उन वंशों में प्रमुख वंश हैं - राष्ट्रकूट वंश, गंगवंश, चालुक्यवंश, होयसलवंश, वोडेयार राजवंश, चंगलववंश, नुग्गेहल्लि के तिरूमल नायक, कदम्बवंश, पल्लववंश, चोलवंश, निडगुलवंश आदि । इन वंशों के नरेशों उनके अमात्यों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके जैनधर्म प्रेम, पराक्रम, साहस, शौर्य, समरकुशलता, विद्वत्ता, दानशीलता आदि का परिचय मिलता है। श्रवणबेलगोला नगर तथा समीपस्थ ग्रामों में उत्कीर्ण लगभग 573 शिलालेखों में से लगभग 100 लेखों में मन्दिर के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर उद्यान आदि के निर्माण से तथा तत्वर्ती काल अथवा पूर्वकाल के दक्षिण क्षेत्र के जैन धर्मावलम्बियों तथा जैन धर्म से प्रभावित नरेशों, अमात्यों, सेनापतियों श्रेष्ठियों आदि के विषय में तथा विन्ध्यगिरि पर अमात्य चामुण्डराय द्वारा निर्मित एक ही विशालखण्ड से 57 फीट ऊँची मूर्ति के उत्कीर्ण कराने तथा विन्ध्यगिरि व चन्द्रगिरि पर अनेक जैन वसदियों (मन्दिर) स्तम्भों आदि के निर्माण के विषय में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है।' इससे यह भी ज्ञात होता है कि किस राजा या सेनापति के काल में कौन से जैनाचार्य थे और कौनसा नरेश अमात्य अथवा श्रेष्ठी किन जैन आचार्य अथवा साधु का शिष्य था। इन शिलालेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन संस्कृति पूर्व में भी भारतव्यापी तथा जैनधर्म अनेक नरेशों द्वारा सम्मानित था । 1. चालुक्य वंश - दूसरी शती ई. के उत्तरार्द्ध में पल्लव, कदम्ब और गंग तीन नवीन राजवंशों की स्थापना हो चुकी थी । तीसरी से छठी शताब्दी ई. पर्यन्त दक्षिण भारत का इतिहास इन्हीं 3 राज्यों के संघर्ष का इतिहास रहा था। तीसरी से चौथी शताब्दी में कांची के पल्लव राजे सर्वाधिक शक्तिशाली रहे और सम्राट कहलाये, 4थी, 5वीं शताब्दी में वनवासी के कदम्बों का वैसा ही चरमोत्कर्ष हुआ और 5वीं, 6ठी शताब्दी में तलकाड के गंगनरेश दक्षिण भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी सम्राट थे, किन्तु 5वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महाराष्ट्र प्रदेश में एक नवीन राजशक्ति का उदय हुआ जिसने छठी शताब्दी बल पकड़ा और 7वीं शताब्दी में दक्षिण के ही नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्य में परिवर्तित हो गई। यह राजशक्ति चालुक्यों की थी और वातापि (बदामी) के पश्चिमी चालुक्य वंश के रूप में इसका जन्म हुआ था। 2. राष्ट्रकूट वंश - राष्ट्रकूट वंश का जैनधर्म के संरक्षण में विशेष योगदान रहा। 8वीं शती ई. में वातापी के चालुक्यों के पश्चात् दक्षिण भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकार राष्ट्रकूट वंश को प्राप्त हुआ। ये राष्ट्रकूट दक्षिणपंथ के प्राचीन रट्ठिकों (राष्ट्रिकों) के वंशज थे तथा अपने आपको चन्द्रवंशीय क्षत्रिय कहते थे। इनकी एक शाखा लट्टलूर (पूर्व निजाम रियासत के बीदर जिले में एक स्थान) में स्थापित थी । कतिपय लेखों में इसी कारण उन्हें लट्टलूरपुरावराधिश्वर कहा गया है। 625ई. के लगभग लट्टलूर के राष्ट्रकूट बराबर प्रदेश के एलिचपुर (एलौरा) में आ बसे थे। यहीं से इस शाखा का अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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