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________________ 'स्वस्तिक' का क्षेत्र व्यापक है इसका महत्व अनेक सांस्कृतिक परिवेशों में समान रूप से रहा है। 'स्वस्तिक' अनेक क्षेत्रों को स्पर्श करता है, क्योंकि विभिन्न स्थानों पर इसके अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं। जैसे दक्षिण भारत में इसे सूर्योपासना से संबंद्ध किया है तो कहीं यह सौभाग्य मूलक माना गया है। स्वस्तिक अनेक रूपों में भी अंकित हुआ है। पूर्ण या सबाहु स्वस्तिक (अ) का विकास मूलतः अबाहु स्वस्तिक (+) से हुआ, जो धन चिन्ह और गुणन चिन्ह (+,x) दोनों रूपों में अंकित किया जाता था। अंग्रेजी में जिसे 'क्रास' शब्द से इंगित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस चिन्ह के अनेक और भी अर्थ दिये गये है, जैसे प्रजनन प्रतीक, व्यापारिक चिन्ह, अलंकरण, अभिप्राय आदि । जॉन गेम्बल के मतानुसार 'क्रास' का आदितम् रूप मृत्यु का द्योतक नहीं था वरन् मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक था।' धन चिन्ह (+) और गुणन (x) चिन्ह में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखायें होती हैं । जो आगे चलकर फिर से मुड़ जाती है। इसके बाद भी ये रेखायें अपने सिरों पर थोड़ी और मुड़ी होती है। जब हम स्वस्तिक के प्रचलित आकार प्रकारों पर दृष्टिपात करते हैं तो इस आकृति की समता सर्वप्राचीन ब्राम्हीलिपि के 'ऋ' अक्षर से बहुत कुछ मेल खाती है। स्वस्तिक के इस आकार के साथ कहीं पर इसके मध्य बिन्दु होता है। जैन दर्शन में स्वस्तिक के उपर नंदीपद प्रतीक की अवधारणा की गई है | स्वस्तिक के बिन्दु आकार अरिहंत और सिद्ध रूप के प्रतीक हैं । स्वस्तिक संसार से मुक्ति तक की सभी अवस्थाओं की ओर प्राणियों का ध्यान आकर्षित करता है। इसके मध्य में खड़ी और आड़ी (+) दो रेखायें पुरूष और प्रकृति , जीव और पुद्गल, चैतन्य और जड़, ब्रम्ह एवं माया, अमृत एवं मर्त्य, सत्य और असत्य, अमूर्त और मूर्त आदि विश्व के दो सनातन तत्वों का निर्देश करती हैं। इन रेखाओं के सिरों पर की चार पंक्तियाँ चार गतियों का स्मरण कराती हैं। ये चार गतियां हैं देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक, जिन्हें स्वस्तिक के चारो कोण इंगित करते हैं जब चतुर्गति दुःख समाप्त हो जाता है, तब परम मंगल की प्राप्ति होती है। स्वस्तिक भी इसी तथ्य की अभिव्यंजना करता है। आशय यह है कि स्वस्तिक की चारों भुजाएं चारों गतियों के दुःखों का स्मरण दिलाकर, प्राप्त मानव पर्याय को संयम द्वारा सार्थक बनाने का संकेत प्रस्तुत करती हैं कि जीव जिस समय, जिस अवस्था, पर्याय या शरीर में रहता है, उस समय उसकी वह गति मानी जाती है। जीव की अवस्था विशेष को ही गति कहा गया है। अपने शुभ-अशुभ कर्म बन्ध के अनुसार ही जीव को गति की प्राप्ति होती है। तीव्र पापोदय से 'नरक', परम शुभोदय से 'देव', पापोदय से 'तिर्यंच' और शुभोदय से मनुष्यगति की प्राप्ति होती है। संयम और तपश्चरण-द्वारा मनुष्य इन गतियों के बन्धनों को तोड़ सकता है। मनुष्य गति का सर्वाधिक महत्व इसलिए है, कि इस गति से जीव चारों गतियों को तो प्राप्त कर ही सकता है, पर सिद्धावस्था भी इस गति से प्राप्त की जा सकती है।12 स्वस्तिक के मध्य में रखे हये चार बिन्दु चार धातियाँ कर्मों को नाश कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप अनन्त लक्ष्मी को प्राप्त अरहन्त का सूचक ज्ञात होते हैं ।13 आत्मा के बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये मानव को त्रिरत्न (सम्यक्, दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र) का अनुसरण करना चाहिये। यह त्रिरत्न तीन बिन्दु के रूप में स्वस्तिक के शिरोभाग पर स्थापित किये जाते है। इनका अनुसरण करने पर मानव आध्यात्मिक रूप से उपर उठता है जिसके प्रतीक स्वरूप तीन बिन्दुओं के उपर अर्धचन्द्र की आकृति दर्शायी जाती है, जिसे सिद्ध शिला का प्रतीक माना जाता है।14 38 अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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