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________________ I था नितान्त निराधार है। जीवों के विकास के क्रम में चिम्पेंजी आदि के बाद उन्हीं से सम्बद्ध श्रेणी में मानव का विकास हुआ। मनुष्य के अवयव पैर, आँतें, दांत आदि इन्हीं शाकाहारी प्राणियों के समान हैं। शिकार के लिए आवश्यक हथियारों (प्रारम्भ में पत्थरों से ही) के निर्माण की बुद्धि मनुष्य में उसके उद्भव के बहुत समय बाद ही आई जिस प्रकार पहिए आदि के निर्माण के लिए मनुष्य के दांत, नख आदि भी मांसाहारी सिंह आदि की भांति बिना शस्त्र के शिकार करने के उपयुक्त नहीं थे। जनसंख्या कम थी और पृथ्वी पर सर्वत्र सघन वन क्षेत्र थे जिनसे प्रचुर मात्रा में स्वतः गिरे फल-फूल आहार के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। मनुष्य किसी जलस्त्रोत नदी, नाले, झील आदि के पास वनों से प्राप्त स्वतः गिरी सूखी लकड़ी एवं सूखे घांस आदि से बनाए आवासों में रहते थे वे सुविधानुसार प्रातः या सायं काल समीप के वनों से स्वतः गिरे फल-फूल और सूखे घांस के बीज गेहूँ, जौ आदि एकत्र कर आहार जुटाते थे। एक व्यक्ति से वनों से एकत्र किए विभिन्न घांसों के दागिय सूखे बीच वर्षा ऋतु से पूर्व अनायास उसकी कुटिया के बाहर बिखर गए। उस व्यक्ति ने देखा कि बीज प्रस्फुटित होकर पौधे बन गए हैं। उसने इनके बीजों को इकट्ठा किया और सोचा कि वनों में घूम फिर कर परिश्रम से खाद्य फल-फूल - बीज लाने से तो अच्छा है कि एक ही जगह बीज बिखेर दिए जायें और फिर वर्षा ऋतु के पश्चात् पकने एवं सूखने पर संग्रह कर लिए जायें। कृषि का इस प्रकार अनायास आविर्भाव आविष्कार हुआ। परिश्रम से बचने के लिए प्रमादवश कई इसे अपनाते गए। इनमें एक बड़ा समुदाय बन गया जो सुर या देव कहलाए। 'सुर' शब्द 'सु' धातु से बना है जिसमें क्रिया (कृषि क्रिया) अभीप्सित है। फिर भी एक समुदाय दृढ प्रतिज्ञ था कि प्रकृति प्रदत्त वनों का संरक्षण किया जावे और उससे उपलब्ध सामग्री से ही जीवन निर्वाह किया जावे। ये राक्षस कहलाए। 'राक्षस' शब्द 'रक्षा' से बना है। ये वनों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहे। विशाल पौराणिक साहित्य सुर असुर, देव राक्षस संग्राम से भरा पड़ा है। सुर चुपचाप बनों को काटकर, जलाकर नष्ट करके भूमि को कृषियोग्य बना देते थे। राक्षसों को विवश अवशिष्ट वन प्रान्तरों में पीछे हटना पड़ता था। यद्यपि वे सुरों से अधिक शक्तिशाली, समृद्ध एवं सुसंस्कृत थे, किन्तु सुरों (देवों) के छल-कपट से वे पीछे हटते गए, हारते गए और एक प्रकृतिवादी आदर्श सभ्यता नष्ट हो गई। इसके बाद विशाल वन क्षेत्र कृषि भूमि के लिए नष्ट किए गए। महाभारत का खाण्डवदाह इसी का ज्वलन्त उदाहरण है। वर्तमान में गत् सदी तक विश्व में लगभग सर्वत्र वनों को नष्ट कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए अनेक प्रलोभन दिए जाते थे । वनों के विनाश से प्रगट दुष्परिणामों के कारण अभी कुछ दशकों से इस पर रोक लगाने के प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन जन संख्या की अनियन्त्रित अतिवृद्धि के कारण कठोर कानूनों की भी धज्जी उड़ाते हुए वन क्षेत्रों में काफी अतिक्रमण हो रहे हैं जिन्हें वोट बैंक की दिवशता में कालान्तर में नियमित किया जा रहा है। = - Jain Education International - ऋषभदेव का उत्कृष्ट व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावी था। भीषण युद्धों से संत्रस्त देव और राक्षसों में उनके समझाने से समझौता हुआ होगा जिसके अनुसार कृषि और वानिकी साथ-साथ की जा सकती थी। वृक्षों की कतारें इस प्रकार दिशा में लगाई गई कि उनकी छाया से कृषि उपज पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इस व्यवस्था के प्रमाण हड़प्पा-मोहनजोदड़ो क्षेत्रों के सेटेलाइट चित्रों में भी मिले है। यह कृषिवानिकी पद्धति आधुनिक वैज्ञानिक प्रबन्धन में द्वितीय विश्व-युद्ध के समय भारत में प्रचलित हुई जिसे टोंग्या पद्धति (TAUNGYA SYSTEM) कहा गया और इसे वानिकी महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित किया गया। ब्रिटिश शासन में विश्व युद्ध के समय वनों से उनकी क्षमता से अधिक लकड़ी निकाली गई और उसकी क्षति पूर्ति के लिए वृक्षारोपण की आवश्यकता थी, किन्तु शासन के पास इसके अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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