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________________ सम्पादकीय अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) अभिनन्दन - दो सामाजिक विभूतियों का सरस्वती के वरदपुत्र - प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी जैन शास्त्राणि अधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान पुरुष: स: विद्वान।। इस उक्ति को जैन समाज ने सदियों से आत्मसात कर रखा है। यही कारण है कि पारम्परिक रूप से जैन समाज उत्कृष्ट चारित्र के धारी पूज्य संतों (आचार्यो/मुनिराजों) के प्रति ही विनयावनत होकर उनके वचनों को महत्व देता रहा है। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद के लगभग 2000 वर्षों में शास्त्र सृजन एवं जिनवाणी की विवेचना का दायित्व पूज्य मुनिराजों ने निभाया। कालान्तर में विपरीत सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों के कारण जब मुनियों का निर्बाध विहार दुष्कर हो गया तो भट्टारक परम्परा ने जिनवाणी का संकलन, संरक्षण एवं संवर्द्धन किया। गत 250-300 वर्षों में हिन्दी के मर्मज्ञ पण्डितों ने भी इस दायित्व का निर्वाह किया है। बीसवीं शताब्दी में जैन समाज के सम्मुख अनेक चुनौतियाँ आई, अनेक आन्दोलन हुए। सदी के अन्तिम 3 दशकों में समाज के सम्मुख आई चुनौतियों से जूझने, सशक्त नेतृत्व देने एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में सम्यक मार्गदर्शन देने वाले विलक्षण एवं बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का नाम है - प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन। व्यक्तित्व एवं पारिवारिक जीवन - स्वनामधन्य पं. मक्खनलालजी शास्त्री से शिक्षित, सादा जीवन उच्च विचार के प्रतीक, ग्राम जटौआ जिला आगरा के निवासी प्रतिष्ठाचार्य पं. रामस्वरूपजी शास्त्री एवं मॉ चमेलीबाई के घर 31 दिसम्बर 1933 को बालक नरेन्द्र का जन्म हुआ। 1952 में आपका विवाह एटा निवासी सुश्रावक श्री जयकुमारजी जैन की सुपुत्री राजेश्वरीजी से हुआ। इस धर्मनिष्ठ दम्पति की छह सन्तानें - श्री भुवनेन्द्र, उपेन्द्र, जिनेन्द्र, श्रीमती प्रतिभा, कल्पना एवं अलकाजी आज अपने अपने क्षेत्रों में पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए माता-पिता की कीर्ति को वृद्धिंगत कर रहीं हैं। पूर्व में आगरा जनपद का ही एक भाग रहे देश के सुप्रसिद्ध नगर फिरोजाबाद के प्रतिष्ठित एस. आर. के. इण्टर कॉलेज से इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही 1953 में स्थानीय पी. डी. जैन इण्टर कॉलेज में आपकी शिक्षक के रूप में नियक्ति हो गई। ज्ञान प्राप्ति की नैसर्गिक रूचि के कारण आपने शिक्षक के रूप में ही B.A., M.A. एवं L.T. की उपाधियाँ अर्जित की। समर्पित शिक्षक के रूप में आपकी यशोगाथा निरन्तर फैलती रही। फलत: विद्यालय प्रबन्धन ने उन्हें 1971 में विद्यालय का प्राचार्य नियुक्त कर शैक्षिक नेतृत्व का दायित्व सौंपा। अपनी लगन, निष्ठा, समर्पित कार्यशैली, कुशल प्रबन्ध क्षमता, निष्पक्ष एवं प्रभावी वक्तृत्व कला के आधार पर आपने 21 वर्षों तक प्रशासनिक दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया एवं सेवानिवृत्ति की निर्धारित तिथि से 2 वर्ष पूर्व ही 1992 में निस्पृहता पूर्वक स्वैच्छिक अवकाश लेकर अपना शेष जीवन जैन समाज समर्पित कर दिया। आपके सक्षम प्रबन्ध कौशल के कारण ही संस्था आपके प्राचार्यत्व में समस्या विहीन रही। 1982 एवं 1983 में क्रमश: आपको माता एवं पिता का वियोग सहना पड़ा। सम्प्रति आप अ. भा. दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष, अ. भा. दिगम्बर अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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