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________________ अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष 15, अंक 4, 2003, 49-52 सुदीर्घ जिन परंपरा में तीर्थंकर महावीर ■ रमेश जैन सारांश प्रस्तुत आलेख में जिन परम्परा ( जैन धर्म) की प्राचीनता एवं उसके विश्वव्यापी सन्दर्भों की चर्चा की गई है। भारत, विश्व में प्राचीनतम सांस्कृतिक विरासत वाला देश माना जाता है। संसार की महानतम सभ्यताओं में भारतीय सभ्यता का अपना विशिष्ट स्थान है। यह विशिष्टता मात्र उसकी प्राचीनता पर आधारित नहीं है और न ही भौगोलिक दृष्टि से एक विशाल भू-भाग पर फैले होने के कारण उसकी विशिष्टता पहचानी गई है बल्कि इस विशिष्टता का श्रेय भारतीयों की अप्रतिम मानवीय दृष्टि और अद्भुत आध्यात्मिक भाव बोध को जाता है । सन्तुलित, व्यावहारिक और विलक्षण सामाजिक समझ और नपा तुला वैज्ञानिक व्यक्ति व्यवहार भारतीय चिन्तना की अलग पहचान को बनाते हैं। सम्पादक प्रवृत्ति मार्ग एवं निवृत्ति मार्ग की दो स्पष्ट परंपराएं इस भारतीय जीवन दृष्टि का विकास दो स्पष्ट वैचारिक परंपराओं से गुजरकर समृद्ध हुआ है। इनमें से एक को कहा जाता है, प्रवृत्ति मार्ग, जिसे वैदिक अथवा ब्राह्मण परंपरा के रूप में पहचाना जाता है। दूसरी परंपरा को निवृत्ति मार्ग नाम दिया जाता है। निवृत्ति मार्ग को ही श्रमण परंपरा नाम से भी पहचाना जाता है और यह श्रमण परंपरा ही जैन, बौद्ध और प्राचीन शैव सम्प्रदायों के रूप में फलीभूत होती है । निवृत्ति मार्गी जैन परंपरा जिन नाम से पहचाने जाने वाले व्यक्तियों द्वारा पोषित हुई थी जिन्हें तीर्थंकर नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। जिन परंपरा के इतिहास के विषय में मिथ्या धारणाएँ जैन साहित्यकारों के मतानुसार कुल 24 जिन अथवा तीर्थकर वर्तमान अवसर्पिणी काल अथवा चौबीसी में हुए थे और महावीर ( वर्द्धमान) उनमें से अंतिम थे। जैन परंपरा के अनुसार महावीर का 2500 वाँ निर्वाण दिवस ईस्वी सन् 1974 में मनाया जा चुका है। अतः कहा जा सकता है कि जैन धर्म की प्राचीनता के विषय में एक अवधारणा हमें खुद जैन साहित्य से प्राप्त होती है और महावीर ( वर्द्धमान) उनमें से अंतिम थे। इस अवधारणा के अनुसार मानव समाज का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैला हुआ बताया जाता है और महावीर से पहले हुए 23 तीर्थंकर अपनी स्वयं की करोड़ों वर्षों की आयु व्यतीत करते हुए करोड़ों ( कोटा कोटी) वर्षों के काल्पनिक विस्तार की ओर इंगित करते हैं।' इस मत के विपरीत बहुत से इतिहासकार पश्चिमी इतिहास धारणा का अंधानुकरण करते हुए महावीर को ही जैन धर्म का प्रवर्तक सिद्ध करने लगते हैं। 2 जिन परंपरा के इतिहास की सच्ची समझ की आवश्यकता Jain Education International उपरोक्त दो विपरीत धारणाओं से अलग एक तीसरी निष्पक्ष इतिहास प्रवृत्ति भी * वास्तुकला एवं नियोजन विभाग, मौलाना आजाद प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, भोपाल - 462007 (म.प्र.) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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