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वर्ष - 15, अंक - 4, 2003, 29 - 31
1 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
श्रमण कौन? - समणी सत्यप्रज्ञा*
सारांश प्रस्तुत आलेख मं 'श्रमण' की विशेषताओं पर आगमोक्त रीति से प्रकाश डाला गया है। श्रमण शब्द मुनि का पर्यायवाची है।
सम्पादक भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति रही है। श्रमण परम्परा, ऋषि परम्पर, का यहाँ गौरवमय स्थान रहा है। इस परम्परा के प्रति जन सामान्य की आस्था में आज अंतर आया है। इसका कारण है वेश बढ़ा है अर्हता में कमी आई है। आचार्य भिक्षु के शब्दों में 'हाथी का भार गधे पर लादा जा रहा है।'
श्रमण शब्द जिस अर्हता को लिए हुए है उसकी गरिमा का वहन यदि साधु - समाज कर पाता, तो किसी भ्रांति को पनपने का अवकाश न मिलता, आस्था को चरमराने का अवसर न मिलता। श्रमण कौन?
'समयाए समणो होइ"। जो समभाव की साधना करता है वह श्रमण है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, यह जानकर जो किसी प्राणी का घात नहीं करता है और न करवाता है। इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह समण कहलाता है। राब जीवों में कोई उसका अप्रिय और प्रिय नहीं है। सबके प्रति समभाव की साधना समण का नैसर्गिक स्वभाव है। सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन (समना) कहलाता है। सब जीवों में कोई उसका अप्रिय
और प्रिय नहीं है। सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन (समना) कहलाता है। "उवसम सारं सामण्णं।" श्रामण्य का सार उपशम है। सदा उपशान्त रहना समण धर्म का आधार है। समण का एक अर्थ सु- मन, श्रेष्ठ मन वाला भी होता है। वह भाव से पाप - मन वाला नहीं होता, स्वजन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है इसलिए वह श्रमण है। "श्रमुच खेदतपसे' जो तपस्वी होता है वह श्रमण होता है। अर्थात् जो विविध अनुष्ठानों के माध्यम से कर्म शरीर को तपाता है वह श्रमण है।
आगम में कतिपय विशेषणों में जैन श्रमण की जीवंत प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। इनके माध्यम से श्रमण की श्रमणता का साक्षात्कार किया जा सकता है। 1. गप्तेन्द्रिय - जो अपनी इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है गुप्त का अर्थ है संरक्षित। चलना, बोलना आदि जीवन यात्रा की सामान्य प्रवृत्तियां है। इनके साथ समिति शब्द का प्रयोग होता है। वह इस बात की ओर इंगित करता है कि मुनि की ये प्रवृत्तियां सर्वसाधारण की तरह नहीं होनी चाहिए। ये गुप्तिपूर्वक होनी चाहिए। कछुआ के समान अपनी इन्द्रियों का गोपित करके रहे। संयत को परिभाषित करते हुए कहा गया जो श्रोत आदि इन्द्रियों को विषयों में प्रविष्ट नहीं होने देता तथा विषय प्राप्त होने पर जो उनमें राग - द्वेष नहीं करता उसे इन्द्रियों से संयत कहते हैं।
* जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं-- 341306 (राज.)
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