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________________ ऐसा कहकर यहाँ 22 वें अरिष्टनेमि तीर्थकर एवं तीर्थंकरों की पवित्रता को दर्शाया गया है। उपसंहार : "ऋग्यजुस्सामाथवर्ण नामक चार वेद, अनादि निधन हैं, अपौरूषेय हैं, जब वे कालाविशेष में लुप्त होते हैं तो परमेश्वर अपने मुखकमल से पुन: प्रकाशित करता है। इस प्रकार द्वैताद्वैतादि मतानुयायी जन समुदाय कहते हैं और उसको मानते भी हैं। इस प्रकार जब वेद अनादिनिधन अपौरूषेय होते हैं तो उनमें प्रतिपादित ऋषभादि वर्धमानांत्य चतुर्विशति तीर्थकरादि भी एवं उनसे प्रकाशित जैन मत भी अनादिनिधन तथा अपौरूषेय सिद्ध होते हैं। सन्दर्भ 1. दिसम्बर 1904 एवं जनवरी 1905. 2. एक पुस्तक, लंदन में मुद्रित, 1817. 3. दिनांक 3.12.1911 4. दिनांक 17.09.1908. 5. रैस डेविड्स एवं आर. बर्न की रिपोर्ट 6. दिनांक 13.12.1914. 7. विविध ज्ञान विस्तार, मुम्बई, दिसम्बर 1903. 8. भगवद्गीता, पंचम अध्याय। 9. पाणिनि व्याकरण। 10. योगवाष्टि, वशिष्टर्षि प्रणीत उनत्तीस सहस श्लोक। 11. दक्षिणापूर्तिसहस्रनाम। 12. वाहिम्न स्तोत्र। 13. हनुमन्नाटक। 14. रूद्रयामलकतंत्र। 15. गणेश पुराण। 16. प्रभास पुराण। 17. नगर पुराण। 18. मनुस्मृति। 19. पंचमवेद। 20. भागवत। 21. श्रृंगार शतक। 22. वैराग्यशतका 23. ऋग्वेद। 24. यजुर्वेद। 25. ऋग्वेद। प्राप्त - 14.07.01 अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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