SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन स्वर्ग को 16, तथा श्वेताम्बर 12 कहते हैं, तो भी परलोक के विषय में उनमें मतभेद नहीं हैं। कर्मों का नाश होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह जैनों का दृढ़ विश्वास और भी अनेक वेदादि ग्रन्थों को मनन करने पर जैन धर्म की सनातनता एवं महत्व को जान सकते हैं। वशिष्टर्षि प्रणीत छत्तीस सहस्र श्लोक परिमित योगवाशिष्ट में अहंकार निषेध नाम के प्रथमाध्याय में वशिष्ट और श्रीरामचन्द्र के बीच हुए संवाद में रामचन्द्र का कहना है कि - नाहं रामो न न मे वांछा भावेषु न च मे मनः। शांतिमास्ततु मिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।। 10 तात्पर्य : - "मैं राम नहीं। मुझे इच्छा नहीं। पदार्थों में मेरा मन नहीं। जिनेश्वर की तरह आत्मा में शांति स्थापना करने का इच्छुक हूँ।" इस पद्य से यह जाना जाता है कि - राम से जिनेश्वर श्रेष्ठ है।" दक्षिणामूर्तिसहस्रनाम में लिखा है - जैनमार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामयः। 11 अर्थात् क्रोध और राग को जीतनेवाले जिनेश्वर है, जिनेश्वर से उपदिष्टित मार्ग में जो आसक्त हुआ है वह जैन है। वाहिम्न स्तोत्र में कहा गया है - तत्वदर्शनमुख्यशक्तिचरिति च त्वं ब्रहम कर्मेश्वरी। कर्हिन् पुरूषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वं गुरू: ।। 12 अर्थात् 'आर्हतमत' यह जैन मत का दूसरा नाम है। इसलिए अर्हन् का अर्थ अर्हत् परमेश्वर है। ऐसे अर्हत् परमेश्वर की स्तुति एवं उसकी श्रेष्ठता इस श्लोक में प्रकट होती है। हनुमन्नाटक में लिखा है - यं शैवा समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो। बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिकाः।। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका:। सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथ: प्रभुः ।। 13 वैष्णव मत प्रतिपादक इस श्लोक में त्रैलोकयाधिपति प्रभु अर्हन ऐसे कहने से उसकी श्रेष्ठता प्रकट होती है। रूद्रयामलकतंत्र में : कुंडासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी। जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी।। 14 इस प्रकार सरस्वती माता की स्तुति की गई है। जगद्धात्रि, जिनमाता, भवानी ये पर्यायवाची नाम हैं। ये सब श्रेष्ठता के सूचक हैं। गणेशपुराण में - जैन पाशुपतं सांख्य15 ऐसा कहा हुआ है। यहाँ पाशुपत सांख्यमतों से पहले जैन मत का उल्लेख करने से इसकी श्रेष्ठता प्रकट होती है। 24 अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy