SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ af-15, 3-4, 2003, 21-27 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर जैन धर्म का सनातनत्व एवं महत्व सारांश प्रस्तुत आलेख में प्रमुख चिन्तकों के कथनों, जैनेतर धर्मग्रन्थों एवं अन्य प्राचीन साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भों के आधार पर सप्रमाण यह सिद्ध किया गया है कि जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन, आस्तिक एवं प्राकृतिक धर्म है। स्व. शांतिराज शास्त्रीजी का मूलतः कन्नड़ भाषा में लिखा यह लेख उनकी पौत्री प्रो. पद्मावतम्मा ने अनुवादित किया है, हमने मूल की रक्षा करते हुए भाषा में परिष्कार का प्रयास किया है। सम्पादक ***** ■ शांतिराज शास्त्री एवं पद्मावत विषम "विषम भवगहन प्रापणप्रवण दुर्जय कर्मट कर्मारातीन जयतीति जिनः" : संसारारण्य को पल्लवित करने के लिए जो समर्थ है, जिन्होंने कठिन एवं कार्यशील कर्मशत्रुओं को जीता है, वे जिन हैं, और उनके द्वारा कहा गया तथा "उत्तमे सुखे धरनीति धर्मः" ऐसी व्युत्पत्तियुक्त धर्म का नाम " जिन धर्म है। इस धर्म की सनातनता एवं प्राशस्त्य के ऊपर प्रकाश डालने वाला यह एक छोटा सा लेख है। सनातनत्व का अर्थ है चिरकाल तक रहना महत्व का अर्थ है बड़प्पन, किन्तु सनातन जो भी है वह सभी महत्व वाला नहीं होता। यदि ऐसा होता तो सनातन द्यूत, चौर्य, व्यभिचार, वेश्यागमन आदि भी महत्व वाले होंगे। इसलिए प्राशस्त्य सहित जो सनातन है वह महल का है ऐसा जानना चाहिए। Jain Education International - जिन में दो भेद हैं एकदेश जिन और सर्वदेश जिन । यहाँ सर्वदेश जिन का ही अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । उनको जिनेश्वर कहा जाता है। तीर्थकरों को भी "जिनेश्वर" ऐसा नाम है। मगर जिनेश्वर सभी तीर्थकर नहीं होते। काल के दो भेद हैं उत्सर्पण और अवसर्पण। इनमें प्रत्येक का प्रमाण एक को दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम कहा गया है। उत्सर्पण में आयुष्य देहपरिमाण, आहार आदि बढ़ते जाते हैं और अवसर्पण में घटते जाते हैं। काल भेदों में प्रत्येक में 24 तीर्थकर यथाक्रम जन्म लेकर धर्मप्रचार करके मुक्त हो जाते हैं। वर्तमान में अवसर्पण काल चल रहा है। इस काल में भी यथाक्रम 1. ऋषभ, 2. अजित, 3 सम्भव 4 अभिनन्दन 5 सुमति 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्व 8 चन्द्रप्रभ 9. पुष्पदन्त 10, शीतल, " श्रेयांस, 12 वासुपूज्य, 12 वासुपूज्य, 13. विमल, 14 अनंत, 15. धर्म, 16 शांति, 17. कुन्थु, 18. अर, 19 मल्लि, 20 मुनिसुव्रत, 21 नमि, 22 नेमि, 23. पार्श्व, 24. वर्धमान महावीर हुये थे। ये सब क्रमश गर्भावतार, जन्माभिषेक, परिष्क्रमण (दीक्षा), केवलज्ञान (सर्वज्ञत्य), निर्वाण (मोक्ष) इन पाँच कल्याणकों के बाद मुक्त हुये थे। कल्याणक का अर्थ है महामंगलोत्सव | * मूल कन्नड़ रचना का हिन्दी अनुवाद ** मूल कन्नड़ रचनाकार, पण्डितरत्न (स्वर्गीय) २०० अनुवादिका प्राध्यापिका गणितशास्त्र, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006 (कर्नाटक) - * विश्वकोश में धर्मः पुण्ये यमें न्यायं स्वभावाचारयोः क्रतौ कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि स्वभाव का एक और अर्थ है धर्म स्वभाव का मतलब है मत, जैन मत की "सनातनता एवं महत्व" के बारे में जैन धर्मग्रंथों के बजाय जैनेतर ग्रन्थों में सुस्पष्ट जानकारी मिलती है। इसी तरह के कुछ अभिप्रायों को यहाँ संग्रह किया गया है। **** For Private & Personal Use Only ww www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy