________________
पण्डित आशाधर के साथ आये लोगों ने मिलकर अपने मूल स्थान की स्मृति में नालछा के समीप ही दूसरा माण्डल दुर्ग स्थापित किया। निश्चित ही यह पर्वतीय शिखर के बजाय पठारी भाग पर बनाया गया था। यहाँ पर एक तालाब और जैन मन्दिरों का निर्माण भी करवाया गया। यहीं के जैन मन्दिर में रहकर पण्डित आशाधर ने भारत प्रसिद्ध जैन ग्रन्थों की रचना की जिसके कारण नलकच्छपुर (नालछा) जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया।
लुन्हेरा - नालछा के मध्य में धार - माण्डव मार्ग से एक कि.मी. पश्चिम में कागदीपुरा गांव स्थित है, यह 22°27' उत्तरी अक्षांस व 75°25' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। इस गाँव के बीहड़ में झाड़ियों में दबे गड्ढे मिले हैं, जो चूने व कांक्रीट से बने हैं। इन्हीं गड्ढों के समीप 20x15 मीटर के पक्के चबूतरे (प्लेट फार्म) भी मिले हैं। यहाँ से दिनांक 23 अक्टूबर 2003 को धनतेरस के दिन रेखा नामक लड़की द्वारा मिट्टी खोदते समय बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई। पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे हुए तीर्थकर नेमिनाथ की यह दिगम्बर प्रतिमा नग्न अवस्था में है। सिर पर कुलित केश, लम्बे कर्ण चाप, गर्दन में तीन मोड चिन्ह है। लम्बी नासिका थोड़ी रेखानक से अलग दिख रही है। शान्त मुद्रा, वक्ष पर श्रीवत्स, नाभि पर अष्टरेखा का रेखांकन है। हाथों की हथेली एवं पैरों के तलवों पर भी सूर्य चक्र का रेखांकन है। पादपीठ पर चार पंक्तियों का लेख उत्कीर्ण है, जो पूष मासे 13 सोमवार, विक्रम सम्वत् 1299 (ईस्वी सन् 1242) का लेख उत्कीर्ण है। इसमें मूलसंघे, पद्मा पुत्र महादेव द्वारा यह प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराये जाने का उल्लेख है। लेख वाचन इस प्रकार है - 1. सं. 1299 वर्षों धोसरा 13 सोमवार 2. मूलसंघे || वीजयो तीरन शे वंश जिन 3. निज कूटान्वये सान्दाहडता जी माती पुत्र लीछा प्राटी श्री गिणि 4. सा विषे भंवरता जी पदमा पुत्र महादेव पूजा द्वारा दिव महादेव पति प्रण मति नितां
यह प्रतिमा परमार शासक जय तुंग देव के समय की है। पण्डित आशाधरजी 1242 में नलकच्छपुर (नालछा) में निवास कर रहे थे। इस प्रतिमा की प्राप्ति से यह प्रमाणित होता है कि इसी स्थान पर पण्डित आशाधर द्वारा स्थापित नेमिनाथ जिनालय था। यहाँ स्थित प्लेटफार्म एवं भवनों के अवशेष उनके द्वारा स्थापित साहित्य मन्दिर एवं विद्यापीठ के अवशेष प्रतीत होते हैं। यह शोध का विषय है।
मालवा के साहित्यकारों में कवि आशाधर का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मोहम्मद गौरी के आक्रमण के पश्चात् 1192 ई. के लगभग आशाधर के पिता श्री सल्लक्षण अपना निवास स्थान मांडवगढ़ छोड़कर धारा नगरी आ गये थे। आशाधर की माता का नाम श्री रत्नी, पत्नी का नाम सरस्वती और पुत्र का नाम छाहड़ था। आशाधर उस युग की महान विभूति थे, उन्होंने धारा नगरी के पांच परमार राजाओं का राज्य देखा और उनके राजाश्रय में सम्मान प्राप्त किया। जैनधर्म के उत्थान के लिये उन्होंने धारा नगरी के समीप नलकच्छपुर (नालछा) को अपना मुख्य निवास स्थान बनाया। वहाँ के नेमि चैत्यालय में रहते हुए अनेक ग्रन्थ लिखे और लोगों को शिक्षित बनाया। उनकी शिष्य परम्परा में से अनेक विद्वानों को मध्यकाल की विभूति माना जाता है।
अर्जन वर्मन (भोज द्वितीय) परमार के समय जैन धर्म की शिक्षा और प्रचार - प्रसार के केन्द्र स्थापित किये गये। आशाधर ने स्वयं भी इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु नलकच्छपुर
10
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org