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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष 15 अंक 3, 2003, 716
समस्तावलोका निरस्ता निदानी, नमो देवि वागीश्वरी जैन वानी ॥
■ सूरजमल बोबरा *
सारांश
10-11 वीं शताब्दी में धारा नगरी दिगम्बर जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र थी। स्वयं राजा भोजदेव परमार (10101053 ई.) ने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। उस काल की प्रतिष्ठित मूर्तियाँ मालवांचल में यत्र-तत्र प्राप्त होती हैं।
वर्तमान में बहुचर्चित धार (धारा नगरी) की भोजशाला को जैन साहित्य में सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद, वाग्देवी कुल सदन या भोजशाला कहा गया है। 10-11 वीं शताब्दी में विभिन्न माध्यमों में उपलब्ध जैन सरस्वती की प्रतिमाएँ इस कालखंड में मालवांचल सहित सम्पूर्ण देश में जैन परम्परा में सरस्वती उपासना के पुष्ट प्रमाण हैं।
ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित भोजशाला की वाग्देवी की प्रतिमा मूर्ति के दाहिने हाथ के ऊपर के भाग में तीर्थकर मूर्ति का अंकन एवं अन्य शिल्पशास्त्रीय तथा साहित्यिक साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं कि यह जैन परम्परा की मूर्ति है।
शिल्प प्रतीक होते हैं किसी परंपरा के । परंपराएँ यूँ ही आकार नहीं ले लेती हैं। उसकी पृष्ठभूमि में एक जीवंत जीवन शैली होती है जो वर्षों बाद किसी शिल्पी या कलाकार के माध्यम से मूर्त रूप लेती है। जीवन शैली को ही हम संस्कृति कहते हैं। तभी तो जब जैन जीवन शैली की अभिव्यक्ति हुई तो तीर्थंकर की मूर्ति का निर्माण हुआ और वेदानुयायी जीवन शैली की अभिव्यक्ति हुई तो रौद्ररूप धारी शंकर व ब्रह्मा की मूर्तियों का निर्माण हुआ। मिस्र की जीवन शैली ने अभिव्यक्ति पाई तो पिरामिड बने और यह क्रम जारी है। विश्व संस्कृति के शिल्प व कला प्रतीक दिखने वाले चेहरे हैं जो जन - चिंतन को अभिव्यक्त करते हैं। यह इतिहास के घटनाक्रम के प्रमाण भी हैं भारत जैसे विशाल देश और चिंतन की उर्वरा भूमि में कई क्षेत्रीय परंपराएँ भी प्रभावी रही हैं और तदनुकूल शिल्पों, स्थापत्यों और कला प्रतीकों के निर्माण के प्रमाण हम पाते हैं। राज्याश्रय, श्रेष्ठि व धर्माचार्यों के आश्रय ने इन शिल्पों व स्थापत्यों की परंपराओं को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भागीदारी
की।
दृष्टि में रखकर विचार करेंगे महावीर के मालवा महत्वपूर्ण मार्ग के रूप में मालवा के स्वरूप के तरह जुट नहीं पाए हैं फिर भी एम.डी. खरे
यहाँ हम विशेषकर मालवा क्षेत्र को आगमन और दक्षिण की ओर जाने वाले संदर्भ तो बहुत से हैं किन्तु प्रमाण पूरी के इस अभिमत में सत्यता है कि 'The fertile fields and forests of Malwa produced and nourished architectural and artistic traditions, flowering under various dynasties through out the ages. That is why it is rightly been called the melting pot of cultures' R की हृदय स्थली होने के कारण देश में पनपी सभी सभ्यताओं और कलाओं का प्रभाव यहाँ के जन जीवन पर सहजता से देखा जा सकता है।
मालव क्षेत्र के ऐसे ही एक प्रभावी राज्यवंश से इन पृष्ठों में हम भेंट करेंगे। उपेन्द्र अपरनाम कृष्णराज या गजराज ने 9 वीं शती के उत्तरार्ध में मालवा क्षेत्र की धारा नगरी में परनार राज्य की स्थापना की थी। उसका उत्तराधिकारी सीयक द्वितीय उपनाम हर्ष प्रतापी नरेश और स्वतंत्र राज्य का स्वामी था। अपने पोषित पुत्र मूंज को राज्य देकर
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