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________________ जो जैनाचार्यों की गणितीय पारंगतता एवं अभिरूचि के ज्वलत प्रमाण हैं। हेमराज कृत 'गणितसार', महिमोदय कृत 'गणित साठसौ' तो हिन्दी भाषा में गणित विषय की अमूल्य कृतियां हैं। हिन्दी पद्य ग्रंथों में गणितीय विषय खूब पल्लवित हुए है।1 बीसवीं सदी के महान दिगम्बर जैनाचार्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपनी कालजयी कृति 'मूकमाटी' में गणित के नौमांक के वैशिष्ट्य का उल्लेख किया है।12 यह प्रकरण गणितज्ञों को भले ही महत्वपूर्ण न लगे किन्तु जैनाचार्यों की गणितीय अभिरूचि को तो दिखाता ही है। गणिनी ज्ञानमती माताजी ने अपनी कृतियों त्रिलोक भास्कर, जम्बूद्वीप, जैन ज्योतिर्लोक, जैन भूगोल में गणितीय विषयों को प्रमुखता से विवेचित किया है।13 एक प्राथमिक सर्वेक्षण में हमने पाया कि आज भी जैन शास्त्र भंडारों में 500 से अधिक गणितीय पांडुलिपियां सुरक्षित हैं, और इनके माध्यम से हम लगभग 40 स्वतंत्र कृतियों को सूचीबद्ध कर सके हैं। "शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं "14 वस्तुत: स्वस्थ शरीर के माध्यम से ही हम आत्मकल्याण हेतु तपश्चरण तथा वस्तु स्वरूप के ज्ञान हेतु आगम साहित्य का अध्ययन कर सकते हैं। फलत: संघस्थ साधुवृंदों एवं श्रावकों की अस्वस्थता की स्थिति में रोगोपचार हेतु औषधियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्वादशांग के अंतर्गत पूर्व साहित्य के एक भेद 'कल्याणानुवाद15 में आयुर्वेद की चर्चा है। 5 वीं शताब्दी के महान जैनाचार्य उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत 'कल्याणकारक' 16 जैन आयुर्वेद का सिरमौर ग्रंथ हैं। आचार्य समंतभद्र एवं अन्य अनेक आचार्यों ने आयुर्वेदिक साहित्य सृजित किया है। हमें यह स्वीकार करने में किंचित भी संकोच नहीं हैं कि जैनाचार्य द्वारा प्रणीत आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं परम्परा के आचार्यों द्वारा सृजित आयुर्वेदिक ग्रंथों में अनेक साम्य हैं। परस्पर आदान-प्रदान भी हुए हैं, क्योंकि लक्ष्य तो दोनों का एक ही था। किन्तु 'अहिंसा परमोधर्म:' की उद्घोषणा करने वाले जैन धर्म के आचार्यों को प्राण रक्षा हेतु भी हिंसा स्वीकार नहीं थी। प्राणों का उत्सर्ग भले हो जाये किन्तु वे ऐसी किसी भी औषधि को स्वीकार नहीं कर सकते थे जिसमें किंचित भी हिंसा हई हो। यही कारण है कि जैन आयुर्वेद के ग्रंथों में दिये गये निदान काष्ठ औषधि, भस्मादि पर ही आधारित होते हैं। वर्तमान में अनुपलब्ध पुष्पायुर्वेद में विभिन्न जाति के पुष्पों से निर्मित औषधियों का संदर्भ हमें प्राप्त होता है। ___ मैंने पाया है कि जैन भंडारों में रस रत्नाकर, रस संग्रह, नाड़ी विचार आदि जैसे शताधिक ग्रंथ उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में लिखे गये हैं।18 अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में ज्योतिष विद्या को अत्यंत महत्व दिया जाता रहा है। प्रारम्भ में तो गणित - ज्योतिष का ही एक अग था। जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा, दीक्षादि मंगल कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त और स्थान का ज्ञान आवश्यक होता है और इनके ज्ञान हेतु ज्योतिष का ज्ञान अपिरहार्य है, फलत: ज्योतिष जैन साधुओं की ज्ञान साधना का अभिन्न अंग रहा है और इस आवश्यकता की प्रति पूर्ति हेतु ज्योतिष विषयक ग्रंथों का सृजन भी किया गया। अनुषांगिक रूप से शकुन विचार, रत्नपरीक्षा आदि पर भी ग्रंथ लिखे गये, 'भद्रबाहुसंहिता', "केवलज्ञान प्रश्न चूडामणि' सदृश एवं अन्य ज्योतिष ग्रंथ हमारी अमूल्य निधियां हैं। आचार्य वसुनंदि, आचार्य जिनसेन, आचार्य अकलंक, पंडित आशाधर जी कृत प्रतिष्ठापाठ आदि सभी प्रतिष्ठा पाठों में मुहूर्त विषयक प्रकरण पाये जाते हैं। जैन ग्रंथ भंडार ज्योतिष विषयक ग्रंथों से अत्यंत समृद्ध हैं।19 प्रतिष्ठा विषयक इन्हीं ग्रंथों में मूर्ति निर्माण हेतु पाषाण के परीक्षण आदि के बारे अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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