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वर्ष - 15, अंक - 3, 2003, 65 - 70
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
जैन पांडुलिपियों में विज्ञान
- अनुपम जैन* एवं रजनी जैन **
सारांश जैन ग्रन्थ भंडारों की समद्धता के कारणों की चर्चा के उपरान्त इनमें संग्रहीत विज्ञान विषयक पांडुलिपियों एवं उनकी विषय वस्तु की संक्षिप्त चर्चा की गई है। जैन भंडारों में गणित, ज्योतिष, ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, भौतिक विज्ञान, रसायन आदि विषयक पांडलिपियां उपलब्ध है।
- सम्पादक देव पूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने॥' जैन धर्म के अनुयायी जिन्हें श्रावक की संज्ञा दी जाती है, के दैनिक षट्कर्मो में आराध्य देव तीर्थंकरों की पूजा, निग्रंथ दिगम्बर गुरूओं की उपासना, स्वाध्याय, तपश्चरण एवं दान, सम्मिलित हैं। इन षट्कर्मों में स्वाध्याय सम्मिलित होने के कारण श्रावकों की प्राथमिक आवश्यकताओं में परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्र सम्मिलित हैं। स्वाध्याय का अर्थ परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों का नियमित अध्ययन है, फलत: जैन उपासना स्थलों (जिन मंदिरों) के साथ स्वाध्याय के लिए आवश्यक शास्त्रों का संकलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण श्रावक प्रतिलिपिकार विद्वानों की मदद से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ कराकर मंदिरों में विराजमान कराते थे। जैन ग्रंथों में उपलब्ध कथानकों में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें व्रतादिक अनुष्ठानों की समाप्ति पर मंदिरजी में शास्त्र विराजमान कराने अथवा शास्त्र भेंट में देने का उल्लेख मिलता है। विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न पंडितों को उनके अध्ययन में सहयोग देने हेतु श्रेष्ठियों द्वारा सुदूरवर्ती स्थानों से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ मंगवाकर देने अथवा किसी शास्त्र विशेष की अनेक प्रतिलिपियाँ कराकर तीर्थयात्राओं के मध्य विभिन्न स्थानों पर भेंट स्वरूप देने के भी अनेक उल्लेख विद्यमान हैं। .
जैन परम्परा में प्रचलित इस पद्धति के कारण अनेक मंदिरों के साथ अत्यंत समृद्ध शास्त्र भंडार भी विकसित हुए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी जिसे श्रुत पंचमी की संज्ञा प्रदान की जाती है, के दिन इन शास्त्रों की पूजन, साज-संभाल की परम्परा है। अत: शास्त्र के पन्नों को क्रमबद्ध करना, नये वेष्ठन लगाना, उन्हें धुप दिखाना आदि सदश परम्पराएं शास्त्र भंडारों के संरक्षण में सहायक रहीं। यही कारण है मध्यकाल के धार्मिक विद्वेष के झंझावातों एवं जैन ग्रंथों को समूल रूप से नष्ट किए जाने के कई लोमहर्षक प्रयासों के बावजूद आज कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, बिहार आदि के अनेक मठों, मंदिरों में दुर्लभ पाण्डुलिपियों को समाहित करने वाले सहस्राधिक शास्त्र भंडार उपलब्ध हैं। जैन आचार्यों एवं प्रबुद्ध श्रावकों की साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मसाधना रहा है। यद्यपि जैन परम्परा स्वयं के तपश्चरण के माध्यम से कर्मों की निर्जरा कर आत्मा से परमात्मा बनने में विश्वास करती है, तथापि आत्मसाधना से बचे हुए समय में जन कल्याण की पुनीत भावना अथवा श्रावकों के प्रति
* मानद सचिव - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 ** शोध छात्रा - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001
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