________________
क्रोध खौल उठा। उनका चेहरा लाल हो गया, फलस्वरूप अहिंसा के पुजारी राजा सुहेलदेव ने राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि रखते हुए तथा जैन शास्त्रों में निर्दिष्ट विधान से अनुप्राणित होकर विरोधी हिंसा को अपना विधेय मानकर सैयद सालार से मुकाबले की ठान ली -
सुनत सलार के हवाल तन लाल भयो,
त्योरी परी वक उमगी उमंग रनोकी। फरकि फरकि भुजदण्ड उभरौहें भये,
भरकि भरकि उठी आगि अभिरन को। कवि द्विजदीन क्रोध बढ़त उतालन पै,
घालन को घाघरा पै सेन यवनन की। प्यासी प्रान की कृपान रूधिर नहान जानि,
खान को मियान कौं मियान ही ते खन की। सैयद सालार के आक्रमण की मंशा को समझकर वीर शिरोमणि सुहेलदेव ने अपनी सेना और सामंतों से भरे खचाखच दरबार में सैयद सालार के विरूद्ध यह ठाना कि - सिंह की शोरो! है स्वर्ण, सुयोग न, भूलि के पैर को पीछे हटाना। है हम वंशज पारथ भीम के, शत्रुओं को भली - भाँति जताना॥ यो चमके द्विजदीन कपाण कि. सोना हो स्वप्न हराम जो खाना। वीरों! चलो समरांगन को, प्रण ठानों न माता का दूध लजाना॥
__इतना ही नहीं, वीर सुहेलदेव ने अपनी सेना और सामंतों को राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए विलुण्ठित हुए मथुरा के मन्दिर सोमपती की खण्डित मूर्ति, गायों और वोटियों के कटने की घटनाओं का हवाला दिया और महमूद गजनी के मनसूबे को नष्ट करने का वादा लिया - मंदिर वै मथुरा के विलुण्ठित, मार रहे बड़ी देर से ताना। सोमपती का वो खण्डित मूर्ति, पुकार रही कर क्रन्दन नाना॥ चोटी कटी कटती सरभी, द्विजदीन सरोष सुहेल बखाना। वीरों! बढ़ो बदला दिल खोल के लो, बैठे रहे से भला मर जाना॥
वीर सुहेल देव की राष्ट्रहित में की गई एक पुकार पर सम्पूर्ण सेना में जैसे मातृभूमि के प्रति कर्तव्य निर्वहन का भाव संचारित हो गया। फलत: सैयद सालार से मुकाबले के लिये श्रावस्ती नरेश अपनी चतुरंग सेना को लेकर बहराइच की ओर निकल पड़े -
स्रावती. नगर ते कढ़यो है श्री सुहेलदेव,
संग चतुरंग रन रंग भरकै लगे। हस लागे हीसन त्यों गज चिक्करन लागे,
व के तरेरे तरकै लो। कवि . द्विजदीन दिग्गजन पै दरेरा परयो,
हेरा पर्यो हर को औ सेस सरकै लगे। आतुर तुरक दल खण्डन को मण्डि रन,
भानु कुल भूप भुजदण्ड फरकै लगे।। अन्तत: एक ओर रणवाँकुरा सैयद सालार और श्रावस्ती का अहिंसा व्रती शासक नरेश सुहेलदेव का आमना-सामना सन् 1030 ई. को बहराइच से 5 मील पर कुटिला नदी के तट पर हिन्दू और मुसलमानों की सेनाओं के भिड़ने के अर्थ में हुआ। जो सैयद
62
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org