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________________ तात्पर्य यह है कि यह समझ होना चाहिए कि जो अविनाशी आत्मा है वह मैं हूँ। क्रोध, विकार आदि परिस्थिति के अनुसार यानी कर्मोदय के अनुसार पैदा होते हैं व नष्ट होते रहते हैं किन्तु मेरा कभी नाश नहीं होता है अतः क्रोध, विकार आदि भाव में ममता या ममत्व या अपनापन नहीं रखना चाहिए । दूसरे शब्दों में, जैसे शरीर आत्मा के वस्त्र की तरह है व बदलता रहता है, उसी तरह क्रोध, अहंकार, छलकपट, लालच, घृणा, डर आदि विकारी भाव भी वस्त्र कीं तरह बदलते रहते हैं, अन्तर यह है कि शरीर यदि बाहर दिखने वाला वस्त्र है तो ये भाव अंतरंग वस्त्र ( Undergarments) हैं। शास्त्रीय भाषा में इन्हें अंतरंग परिग्रह कहा जाता है। प्रश्न: क्रोध, डर, लालच, ईर्ष्या आदि गंदे संस्कारों या विचारों को अपना नहीं मानेंगे तो उन्हें हटाने के प्रयास हमारे से नहीं होंगे, हम आलसी हो सकते हैं। अतः सत्यमार्ग या कल्याणकारी मार्ग या शान्ति व आनन्द का मार्ग क्या होना चाहिए ? उत्तर : वास्तव में यह एक उलझन है। यदि हम शरीर एवं मन की क्रियाओं को अपना समझते हैं तो जब भी इनसे गलती होती है तब हमें धिक्कारपन होता है एवं बुरा लगता है व इस प्रक्रिया में हम दुःखी होकर नवीन पापों का बंध कर लेते हैं। किन्तु यदि हम इन्हें अपना नहीं समझते हैं तो फिर हम बेपरवाह हो सकते हैं, या आलसी हो सकते हैं, यह सोचकर कि मैं तो अविनाशी आत्मा हूं व मुझे किससे भी लाभ हानि नहीं है तो फिर डर किस बात का, ऐसी स्थिति में गलत राह पर भी लग सकते हैं। इस प्रकार यह उलझन बनी रहती है कि दोनों में से किसे चुने। इसका उत्तर यह है कि यथायोग्य समझो। इस 'यथायोग्य' की व्यवस्था हेतु जैन दर्शन में अनेकान्त की व्यवस्था है। कल्याणकारी मार्ग को अनेकान्त रूप से आचार्यों ने शास्त्रों में विस्तार से समझाया है जिसे हम सरल भाषा में व अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में एक त्रिभुज के तीन बिन्दुओं के (देखिए चित्र क्रं. 1 ) द्वारा समझ सकते हैं। इस त्रिभुज को समझने के पहले नैतिकता के सामान्य शिष्टाचार की समझ होना चाहिए। मेरा जीवन दूसरों के मार्ग में कांटे न बिछाए - यह समझ तो होना ही होना चाहिए। जैसे कोई विज्ञान सीखना चाहे तो न केवल विज्ञान सीखना होता है अपितु प्रयोगशाला के अनुशासन को भी समझना होता है, साथ में कार्य करने वाले व्यक्तियों में मेलजोल के तरीके भी सीखने होते हैं, व शरीर के भोजन व विश्राम का भी ध्यान रखना होता है। उसी तरह सुख के इस मार्ग को समझने अभ्यास करने हेतु एक तरफ अविनाशी आत्मा में अपनत्व स्थापित करना होता है तो दूसरी तरफ शरीर, मन एवं वाणी की आवश्यकताएं व मनोकामनाएं किस तरह अन्य प्राणियों एवं स्वयं के विकास में निमित्त बन सकती हैं व किस तरह बाधा बन सकती है इसका ज्ञान किया जाता है व उसके अनुसार आचरण होता है। साथ ही वस्तु व्यवस्था की समझ भी आवश्यक होती है। इन तीनों घटकों को त्रिभुज के तीन बिन्दुओं के रूप में चित्र क्रं. 1 में दर्शाया गया है। तीनों बिन्दुओं की विशेषताएं निम्नानुसार हैं : त्रिभुज का एक बिन्दु 'अ' : इसके अन्तर्गत यह मान्यता एवं समझ पक्की होती है कि मैं पूर्ण सुख व शक्ति का भंडार अविनाशी आत्मा हूं, मेरी आत्मा सदैव पूर्ण है यानी इसको और अधिक अच्छा या पूर्ण करने के लिए बाहर से कुछ भी नहीं चाहिए। आत्मा में परिस्थिति के अनुसार 36 अर्हत् बचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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